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ताजिए का इतिहास
भारत में ताजिए की शुरूआत 14वीं सदी में तैमूर लंग बादशाह के शासनकाल में हुई थी। दरअसल, तैमूर लंग बादशाह का ताल्लुक शीआ मुस्लिम संप्रदाय से था। तैमूर लंग फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए 1398 में भारत पहुंचा। बताया जाता है कि उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए थे। दिल्ली की सत्ता पर काबिज महमूद तुगलक से युद्ध जीतने के बाद उन्होंने अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया था। तैमूर लंग दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। इसिलए उसके नाम के साथ लंग जुड़ गया। दरअसल, लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ लंगड़ा होता है। बताया जाता है कि शिया समुदाय से होने की वजह से तैमूर लंग हर वर्ष मुहर्रम माह में इराक के कर्बला में इमाम हुसैन के मजार पर जरूर जाता था। बताया जाता है कि वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों और वैद्यों ने उसे यात्रा के लिए मना किया था। सेहत खराब होने की वजह से वह एक साल कर्बला नहीं जा पाया। लिहाजा, बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने तैमूर को खुश करने के लिए जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला स्थित इमाम हुसैन के रौजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया था। इस आदेश के बाद कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से इमाम हुसैन की याद में उके कब्र पर बने मकबरे का ढांचा तैयार किया, जिसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस तरह 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल के परिसर में ताजिए को पहली बार रखा गया।
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तैमूर को खुश करने के लिए देशभर में फैल गई ताजिए की परंपरा
दिल्ली के शासक तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। बताया जाता है कि देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इस ताजिए की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। इसके बाद तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। खासतौर पर शिया संप्रदाय के नवाबों व सूबेदारों ने तत्काल ही इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया। तभी से लेकर अब तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। ताजियादारी की खास बात ये है कि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शिया बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
तैमूर लंग ऐसे पहुंचा भारत
तैमूर अपनी शुरू की गई ताजिए की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी का शिकार होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। इसके बाद 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में उनकी मौत हो गई। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तब से भारत के शिया-सुन्नी और कुछ इलाकों में हिन्दू भी ताजिए की परंपरा को मानते और मनाते आ रहे हैं। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया था।