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रक्षा करने के लिए बंध जाना
वैदिक युग से प्रचलित रक्षाबंधन का पर्व शिक्षा, स्वास्थ्य, सौंदर्य तथा सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना एवं पुनर्स्मरण कराता है, जिसे प्रायश्चित एवं जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए संकल्प पर्व के रूप में मनाया जाता है। यही जीवन की सुख एवं समृद्धि का आधार है। श्रावणी पूर्णिमा के दिन दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। श्रावणी अथवा उपाकर्म और रक्षाबंधन। रक्षाबंधन का अर्थ है-रक्षा करने के लिए बंध जाना। सूत्र प्रतीक है-पवित्र प्रेम की पहचान का, भाई और बहनों के अटूट विश्वास का।
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ऐसे हुई रक्षाबंधन की शुरूआत
रक्षाबंधन के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित है। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम में जब देवता निरंतर पराजित होने लगे, तब देवराज इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति से विजय प्राप्ति की इच्छा प्रकट की एवं इसके लिए उपाय सुझाने के लिए प्रार्थना की। देवगुरु बृहस्पति ने श्रावण पूर्णिमा के दिन आक के रेशों की राखी बनाकर इंद्र की कलाई पर बांध दी। यह रक्षा कवच इंद्र के लिए वरदान साबित हुआ। इस प्रकार मानव संस्कृति में प्रथम रक्षा−सूत्र बांधने वाले बृहस्पति देवगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हुए, तभी से रक्षा सूत्र बांधने का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
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रक्षा−सूत्र विजयश्री का प्रतिक
रक्षाबंधन के दिन देवराज इंद्र को देवासुर संग्राम के लिए विदा करते समय उनकी पत्नी शची ने उनकी भुजा पर रक्षा−सूत्र बांधा था। यह सूत्र एक विश्वास और आस्था का प्रतीक था, विश्वास फलित हुआ और इंद्र विजयी होकर लौटे। प्राचीनकाल में योद्धाओं की पत्नियां रक्षा−सूत्र बांधकर उन्हें युद्ध भूमि में भेजती थीं, ताकि वे विजयी होकर ही लौटें।
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रक्षा बंधन- भगवान कृष्ण और भगवान वामन
एक अन्य कथानुसार, भगवान् वामन ने राजा बलि को इसी दिन रक्षा हेतु सूत्र बांधकर दक्षिणा प्राप्त की थी। वस्तुतः राखी के इसी कच्चे धागे के बदले भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी को अक्षय एवं असीमित कर लाज बचाई थी। इसे भाई-बहिन के पवित्र एवं पावन संबंधों का सूत्रपात कहा जा सकता है और यहीं से रक्षाबंधन की पुण्य परंपरा प्रचलित हुई।
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