ऐसी मान्यता है कि सुख-समृद्वि के लिए ऐसी गणेश प्रतिमा या फोटों की पूजा करना चाहिए जिसकी सूंड पूजा दायी दिशा में मुड़ी हो। ऐसे स्थापित गणेश जी का पूजन करने से शत्रुओं पर विजय मिलने के साथ व्यक्ति को जीवन सुख समृद्धि भी मिलती है। साथ ही कहा जाता है कि जिनको ऐश्वर्य पाने की इच्छा हो उन्हें बायीं ओर सूंड वाले गणेश जी की पूजा करनी चाहिए।
जिस गणेश प्रतिमा या चित्र में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है। इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को ‘जागृत’ माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड के अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।
गणेश के पास हाथी का सिर, मोटा पेट और चूहा जैसा छोटा वाहन है, लेकिन इन समस्याओं के बाद भी वे विघ्नविनाशक, संकटमोचक की उपाधियों से नवाजे गए हैं। कारण यह है कि उन्होंने अपनी कमियों को कभी अपना नकारात्मक पक्ष नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी ताकत बनाया। उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड बताती है कि सफलता का पथ सीधा नहीं है। शास्त्रों के अनुसार, विघ्नहर्ता गणेश जी का पूजन करते समय पूर्ण श्रद्धा व पवित्रता का ध्यान साधक को रखना चाहिए।