Dan Dakshina Antar: धार्मिक अनुष्ठानों या मांगलिक कार्यक्रमों के बाद ब्राह्मणों, गरीबों या श्रेष्ठ व्यक्तियों को जो कुछ प्रदान करते हैं, वह दान है या दक्षिणा, इसे एक कुछ नियम अलग करते हैं। दोनों की भावना में फर्क है, जिससे दोनों का अर्थ बदल जाता है। आइये आपको समझाते हैं दान और दक्षिणा में क्या अंतर है, ताकि जब आप मकर संक्रांति पर दान पुण्य करें तो विधि पूर्वक करें और आपको पता हो कि दोनों में क्या अंतर है। आइये आपको समझाते हैं दान और दक्षिणा का फर्क।
दान का अर्थः दान का शाब्दिक अर्थ है देने की क्रिया है। हिंदू धर्म में दान की महिमा का खूब बखान है। सुपात्र को दान परम कर्तव्य माना गया है। दान किसी वस्तु से अपना अधिकार समाप्त कर दूसरे के अधिकार को स्थापित करना है, आधिपत्य स्थापित होने से पहले ही वस्तु के नष्ट होने पर दान नहीं माना जाता। इसमें विनिमय भी नहीं होता है। प्रयागराज के आचार्य प्रदीप पाण्डेय के अनुसार दान श्रद्धा से दिया जाता है।
दान के तीन भेद सात्विक राजस तामस बताए गए हैं। पवित्र स्थान और उत्तम समय में जब ऐसे व्यक्ति को दान दिया जाय जिसने दाता पर कोई उपकार न किया हो वह सात्विक दान है और उपकार के बदले या फल की आकांक्षा से किया गया दान राजस दान है। वहीं अपवित्र स्थान, अनुचित समय, अवज्ञा पूर्वक और अयोग्य व्यक्ति को किया गया दान तामसिक दान है। इसके अलावा कायिक, वाचिक, मानसिक भेदों से भी दान के प्रकार बताए गए हैं।
इसका एक अर्थ यह है कि धार्मिक मांगलिक कार्यक्रम के बाद आगंतुक ब्राह्मणों और श्रेष्ठ व्यक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त सामर्थ्य अनुसार दी गई वस्तु दक्षिणा है। दक्षिणा में यदि दाता सामर्थ्य से कम प्रदान करता है तो वह मान्य नहीं होती।
चंदाः किसी धार्मिक या सामाजिक कार्य के लिए दी जाने वाली सहयोग राशि चंदा होती है। इसमें व्यक्ति सामर्थ्य और स्वेच्छा से सहयोग करता है।