भरत के साथ निकले तीर्थ यात्रियों का विशाल दल सरयू पार गया था। राम सौभाग्यशाली थे, उनकी यात्रा में उनके आगे उनकी कीर्ति चल रही थी। भरत की यात्रा में उनके आगे-आगे चल रहा था उनका दुर्भाग्य, उनकी अपकीर्ति…
भरत की इसी अपकीर्ति ने विचलित कर दिया सरयू पार बसे उस संत को भी, जिसे राम के मित्र होने का सौभाग्य प्राप्त था। उन्हें लगा, भरत राम का अहित करने निकले हैं। वह भोला बनवासी अपने लोगों के बीच गरजा, ‘हम जानते हैं कि हम महाराज भरत की विशाल सेना से जीत नहीं सकते, पर यदि अपने प्रिय के लिए प्राण भी नहीं दे सके तो धिक्कार है मित्रता पर… अच्छा भी है, अयोध्या देख ले कि प्रजा राम के साथ जीना चाहती है और राम के लिए मरने को भी उत्सुक है। धनुही उठा लो साथियों, युग-युगांतर की सत्ता को याद रहे कि राम के लिए यह धरा अनन्त काल तक लड़ती रहेगी, जीतती रहेगी।’
निषाद कुल के किसी बुजुर्ग ने कहा, ‘अरे रुक जा रे बावले! भरत राम के भाई हैं, तुम्हारे राम के भाई… क्षण भर के लिए उस देवता की संगत पाकर हम जैसे गंवारों को धर्म का ज्ञान हो गया, फिर वे तो उनके साथ ही पले बढ़े हैं। एक बार उनसे मिल कर तो देख…’
भक्त का क्रोध तनिक शांत हुआ। शीश झुका कर बोले, ‘हो सकता है काका! मैं सहज देहाती मानुष, इतनी बुद्धि नहीं है। चलो, मैं पहले उनसे मिल कर आता हूं…’
गुह्य आगे बढ़े। अकेले, निहत्थे… आगे से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट भरत का रथ आ रहा था। उनके साथ असंख्य रथ थे, विशाल सेना थी, समूची प्रजा थी… और उनके सामने चुपचाप खड़े हो गए निषादों के उस छोटे गांव के मुखिया गुह्य!
भरत ने साथ चल रहे जानकार सैनिक से पूछा, ‘कौन हैं ये?’ सैनिक ने बताया- राजकुमार राम के परम मित्र निषादराज गुह्य!’
भरत की पलकें झपकीं, उन्हें लगा जैसे गुह्य नहीं स्वयं राम खड़े हैं। भरत विह्वल होकर कूद गए रथ से और दौड़ पड़े गुह्य की ओर… पूरी प्रजा आश्चर्य से देख रही थी। अयोध्या का सम्राट दौड़ कर लिपट गया उस बनवासी से…
निषादराज के मन में बैठा मैल क्षणभर में बह गया और बिलख कर रो पड़ा वह भला मानुष! इधर भरत ऐसे रो रहे थे जैसे भइया राम से लिपट कर रो रहे हों… लोग देख रहे थे, कहां अयोध्या के सम्राट और कहां एक गांव का प्रधान! धर्म ने दोनों को एक कर दिया था, समान कर दिया था।
देर तक यूं ही रोते रहे भरत ने कहा, ‘तुम भी हमारे साथ चलो भइया! भइया को वापस अयोध्या लाना ही होगा…’
गुह ने उत्साहित होकर कहा, ‘अवश्य चलेंगे भइया। उनके चरणों में गिर पड़ेंगे और तब तक न उठेंगे जब तक वे वापस लौटने को तैयार न हो जाएं।’