मिठाई बनाने की कला ने दिलाई पहचान
भाईजी व हनुमान जी के पेड़े बनाने की कला ने इन्हें देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहचान दिलाई। करीब 50 सालों से पेड़े बना रहे सीताराम प्रजापत ने बताया कि शहर के लोगों को इनके स्वाद ने लुभाया तो यहां के प्रवासी लोग पेड़े खरीदकर कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, दक्षिण भारत, गुजरात सहित देश के कई शहरों में ले जाने लगे। इसके अलावा जिले के कई लोग खाड़ी देशों समेत ऑस्ट्रेलिया व यूरोप लोग ले जाने लगे। ऐसे में विदेशों में भी लोग इनके स्वाद के मुरीद होने लगे। अब पेड़े कई देशों में जाते हैं।
दो तरह के बनते पेड़े
सीताराम प्रजापत ने बताया कि शहर में पेड़े दो तरह से बनाए जाते हैं। एक डबल सिकाई का व एक केसर का बनाया जाता है। मावा कारखाने में ही तैयार किया जाता है। पेड़े बनाने का काम कारीगर सुबह सात बजे से शुरू करते हैं। जो कि देर शाम तक चलता है। करीब सौ किलो पेड़े रोज बनते हैं। मावे की दो बार सिकाई करने के बाद पेड़े बनते हैं। इसके अलावा केसर के पेड़े भी मावे को खूब सेकने के बाद बनाए जाते हैं।