किले में मौजूद तोपें बेहाल हैं। किले के मुख्य गेट की दीवार के ऊपर एक तोप मौजूद है। तीसरे गेट के ऊपर मजार के पास भी एक तोप पड़ी हुईहै। इनकी कोई देखरेख नहीं होती। नगर के झंडा चौक, विधायक कार्यालय के सामने मंडी के गार्डन में, नगरपालिका कार्यालय परिसर में भी एक-एक तोप मौजूद हैं। पूर्व में ये तोपें किले के अंदर स्थित थीं।
किंवदंती है कि प्राचीन किले में सुरंग भी मौजूद थी। यह सुरंग सेंधवा किले से भंवरगढ़ किले तक जाती थी। युद्ध के दौरान इसी सुरंग के माध्यम से सैनिक दोनों किलों तक आया जाया करते थे।
कहा जाता है, किसी समय सेंधवा घोड़े की बड़ी मंडी थी। अच्छी नस्ल के घोड़ों के लिए राजा-महाराजा यहां आते थे। घोड़े की बड़ी मंडी होने की वजह से नगर का नाम सेंधवा पड़ा। बता दें, घोड़े को सैंधव नाम से भी जाना जाता है। किले में मुख्य द्वार के पास घोड़ों को बांधने के लिए अस्तबल भी बना हुआ था। लेकिन अब इसका अस्तित्व खत्म हो चुका है।
किले की खोदाई में खजाने मिलने की भी बात सामने आ चुकी है। किले में पांडल मिट्टी खोदने के दौरान सोने की ईंट, सोने, चांदी की गिन्नियां भी लोगों को मिली हैं। वहीं किले के अंदर उपजेल होने से सजायाफ्ता कैदियों द्वारा किले की दीवारों के पास खुदाईके वक्त बड़ी मात्रा में सोने एवं चांदी की गिन्नियां प्राप्त हुईं थी। जिसे सरकारी खजाने में जमा कराया गया था।
पहले सेंधवा एवं आसपास के क्षेत्रों में घना जंगल था। जंगली जानवरों की भरमार थी। यहां की आबादी किले के अंदर निवास करती थी। सूरज ढलने के बाद कम ही लोग किले से बाहर आते थे। किले का बड़ा गेट बंद कर दिया जाता था।
किले के अंदर कई कमरे एवं भवन भी बने होने की मान्यता है। बताया जाता हैकि गोडाउन निर्माण के दौरान हुई खोदाई में कई कमरों के अवशेष नजर आए। लेकिन इसपर ध्यान नहीं दिया गया।
किले के चारों कानों पर भव्य तालाब बने थे। ताकि दुश्मन किले में प्रवेश न कर पाए। बढ़ती आबादी एवं समय के साथ ये तालाब अब खत्म हो चुके हैं। किले के अंदर पानी के लिए दो तलाब, जो राज राजेश्वर मंदिर के पास एवं रानी गार्डन के पास अभी भी मौजूद हैं। जलस्तर गिरने एवं भीषण गर्मी के बावजूद इन तालाबों में पानी बना रहता है।
शासकीय महाविद्यालय अंजड़ के प्राचार्य डॉ. आईए बेग कहते हैं कि सेंधवा का किला परमार कालीन है। उत्तर दक्षिण की सीमाओं की रक्षा के लिए इसका निर्माण किया गया था। सेना की टुकड़ी भी यहां तैनात रहती थी। शस्त्रागार भी यहां मौजूद था। इसकी निशानियां तोपों के रूप में आज भी किले की दीवारों पर दिखाई देती हैं। देखरेख न होने के चलते किला एवं तोप अब जर्जर स्थिति में पहुंचने लगे हैं। निमाड़ की ऐतिहासिक धरोहर इतिहास के पन्नों में गुम न हो जाए, इसके लिए शासन को इस ओर गंभीरता से चिंतन करनी चाहिए। मेरे द्वारा इस संबंध में शासन को लेखों द्वारा अगवत कराया गया था।