घर व दुकानों में बच्चों की टोलियों को धान, चावल, चाकलेट व अन्य पकवानों का किया दान
हर दरवाजे पर छेरी के छेरा छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेरहेरा की आवाज सुनते ही अन्नदाता बाहर निकले और दान-पुण्य किया। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की टोली ने डंडा नाच व युवतियां सुवा नाच करते दान मांगते दिखाई दी। सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हर्षोल्लास था। इस त्योहार पर घर व दुकानों में बच्चों की टोलियों को धान, चावल, चाकलेट व अन्य पकवानों का दान किया।
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छेर छेरा पर्व की ये है मान्यता
यह त्योहार हर साल पौष मास की पूर्णिमा को छेर-छेरा पुन्नी के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज की कोई कमी नहीं रहती। बताया जाता है कि कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्धकला की शिक्षा ली थी। करीब आठ साल तक राज्य से दूर रहे। राजा के रतनपुर आते ही लोग राजमहल की ओर चल पड़े। छत्तीसगढ़ों के राजा भी कौशल नरेश के स्वागत के लिए रतनपुर पहुंचे। राजा को देखकर कौशल देश की प्रजा खुशी से झूम उठी। लोकगीत और गाजे-बाजे की धुन पर हर कोई नाच रहा था। इन आठ वर्षों तक पत्नी रानी फुलकैना ने राजकाज संभाला था। इतने समय बाद अपने पति को देख वह खुशी से झूम उठी। रानी ने दोनों हाथों से सोने-चांदी के सिक्के प्रजा में दान कर दिया। इसके बाद राजा कल्याण साय ने राजाओं को निर्देश दिया कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन किसी के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाएगा।