इसे खासतौर पर ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की गद्दी का प्रतीक मानते हुए दुआ-इबादत की जाती है। कई जायरीन भी यहां गुलाब के फूल चढ़ाते हैं। यह गद्दी उर्स के दौरान ही ज्यादा दिखाई देती है। उर्स के बाद इसे हटा लिया जाता है। अगले उर्स में फिर छोटी गद्दी स्थापित की जाती है। चाहे जमाना इंटरनेट, मोबाइल, कम्प्यूटर की तरफ बढ़ गया हो, लेकिन परम्परा को बरसों से निभाया जा रहा है।
इलियास बताते हैं 80 के दशक तक ख्वाजा साहब के उर्स में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं होती थी। पहली से छठी रजब तक दरगाह और आसपास के इलाके में इतनी बस्तियां भी नहीं थी। उर्स के दौरान माहौल बिल्कुल शांत होता था। छठी की रस्म के दौरान तो सुई गिरने की आवाज (पिन ड्रॉप साइलेंस) भी सुनाई नहीं देती थी। यह माना जाता था कि यह ख्वाजा साहब का पवित्र स्थान है। उनके सम्मान में लोग रस्म में शामिल होने के बाद बेहद शांति से अपने-अपने शहरों में रुखसत होते थे।
बरसों पहले ईरान क्षेत्र से कुछ पहलवान दरगाह जियारत के लिए आए थे। अपनी रौबिली कद-काठी के अनुरूप वे धीरे-धीरे निजाम गेट से अंदर की तरफ बढ़े। अचानक उनकी नजहें शाहजहांनी गेट पर लिखी पंक्तियों पर पड़ी। उसे पड़ते ही वे तुरन्त नतमस्तक हो गए। इस पर लिखा था….यह ख्वाजा साहब की आरामगाह है, यहां धीरे-धीरे चलो ताकि उनकी इबादत में कोई खलल नहीं पड़े।