बहुत दुरूह और थकान भरा सफर
नेताजी ने हिटलर से भारत की स्वतंत्रता के समर्थन की मांग की थी, लेकिन हिटलर ने इसे नकारते हुए इस दिशा में किसी कदम उठाने से मना कर दिया था। इसके अलावा, नेताजी ने हिटलर की किताब में भारत विरोधी टिप्पणियों पर आपत्ति जताई गईं, लेकिन हिटलर ने इस पर कोई ठोस जवाब नहीं दिया। इस बातचीत से नेताजी बहुत मायूस हुए थे, क्योंकि उन्हें जर्मनी से मदद मिलने की उम्मीद थी, जो अब साफ नहीं थी। इसके बाद, नेताजी ने जर्मनी से जापान जाने के लिए एक पनडुब्बी की मदद ली। बहुत दुरूह सफर और थकान भरा था, क्योंकि पनडुब्बी में तंग जगह और डीजल की बदबू के बीच तीन महीने का सफर तय करना पड़ा। इस दौरान नेताजी ने अपनी किताब ‘द इंडियन स्ट्रगल’ पर काम भी किया। पनडुब्बी यात्रा के दौरान उन्हें खिचड़ी और दाल-चावल जैसे घर के भोजन की याद आई, और जर्मन अधिकारियों के साथ भी उन्होंने इसका आनंद लिया।
अपने साथियों को शांत रहने की प्रेरणा दी
नेताजी की पनडुब्बी यात्रा के दौरान उनका ब्रिटिश युद्धपोतों से सामना हुआ, जिसमें एक ब्रिटिश तेलवाहक जहाज को डुबो दिया गया। हालांकि, एक बार पनडुब्बी के सामने खतरा पैदा हुआ, लेकिन नेताजी शांत रहे और उन्होंने मुश्किलों का सामना करते हुए अपने साथियों को शांत रहने की प्रेरणा दी। सफर के आखिर में नेताजी जापानी पनडुब्बी में स्थानांतरित हो गए, जहां उन्होंने जापानियों के हाथों से बनाए गए भारतीय व्यंजनों का लुत्फ लिया। इसके बाद उन्होंने 13 मई, 1943 को उन्होंने रेडियो पर भारतीय जनता से सीधे संवाद किया और अपनी यात्रा के अनुभव शेयर किए।
नेताजी की हिटलर से मुलाक़ात
बाद में इस मुलाक़ात का विवरण देते हुए बोस-हिटलर बैठक में दुभाषिए का काम करने वाले पॉल शिमिट ने बोस की भतीजी कृष्णा बोस को बताया था, “सुभाष बोस ने हिटलर से बहुत चतुराई से बात करते हुए सबसे पहले उनकी मेहमान नवाज़ी के लिए उन्हें धन्यवाद दिया था।” उनकी बातचीत मुख्य रूप से तीन विषयों पर हुई थी। पहली ये कि धुरी राष्ट्र भारत की आज़ादी को सार्वजनिक समर्थन दें। ध्यान रहे कि मई, 1942 में जापान और मुसोलिनी भारत की आज़ादी के समर्थन में एक संयुक्त घोषणा करने के पक्ष में थे। रिबेनट्रॉप ने इसके लिए हिटलर को भी मनाने की कोशिश की थी लेकिन हिटलर ने ऐसा करने से मना कर दिया था।
ब्रिटेन ने संदर्भ तोड़-मरोड़ कर पेश किए
हिटलर- बोस बातचीत का दूसरा विषय था हिटलर की किताब ‘मीन कैम्फ़’ में भारत विरोधी संदर्भ पर चर्चा। नेताजी का कहना था कि इन संदर्भों को ब्रिटेन में तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है और अंग्रेज़ इसे जर्मनी के ख़िलाफ़ प्रचार में इस्तेमाल कर रहे हैं। बोस ने हिटलर से अनुरोध किया कि वो उचित मौक़े पर इस बारे में सफ़ाई दे दें। हिटलर ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया था और गोलमोल तरीक़े से इसे टालने की कोशिश की थी, लेकिन इससे ये अंदाज़ा ज़रूर हो गया कि बोस में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह के सामने ये मामला उठाने का दम था।
हिटलर ने पनडुब्बी की व्यवस्था करवाई
उनकी बातचीत का तीसरा विषय था कि नेताजी को किस तरह जर्मनी से पूर्वी एशिया पहुंचाया जाए। यहां हिटलर पूरी तरह से सहमत थे कि जितनी जल्दी हो सके सुभाष बोस को फौरन वहां पहुंच कर जापान की मदद लेनी चाहिए, लेकिन हिटलर नेताजी के वहां हवाई जहाज़ से जाने के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि रास्ते में मित्र देशों की वायुसेना से उसकी भिड़ंत हो सकती थी और उनके विमान को ज़बरदस्ती उनके क्षेत्र में उतारा जा सकता था। हिटलर ने नेताजी को सलाह दी कि उन्हें पनडुब्बी से जापान जाना चाहिए, उन्होंने इसके लिए तुरंत एक जर्मन पनडुब्बी की व्यवस्था भी कर दी। हिटलर ने अपने हाथ से एक नक़्शे पर सुभाष बोस की यात्रा का रास्ता तय किया। हिटलर की राय में यह यात्रा छह हफ़्ते में पूरी कर ली जानी थी, लेकिन नेताजी के जापान पहुंचने में पूरे तीन महीने लगे।
पनडुब्बी में दमघोटू माहौल और डीज़ल की गंध
नेताजी सुभाष बोस 9 फ़रवरी, 1943 को आबिद हसन के साथ जर्मनी के बंदरगाह कील से एक जर्मन पनडुब्बी से रवाना हुए। पनडुब्बी के अंदर दमघोटू माहौल था। नेतीजी को पनडुब्बी के बीच में बंक दिया गया था। बाकी बंक किनारे पर थे। पूरी पनडुब्बी में चलने फिरने के लिए कोई जगह नहीं थी। आबिद हसन ने अपनी किताब ‘सोलजर रिमेंबर्स’ में लिखते हैं, “मुझे घुसते ही अंदाज़ा हो गया कि पूरे सफ़र के दौरान या तो मुझे बंक में लेटे रहना होगा या छोटे रास्ते में खड़े रहना होगा। पूरी पनडुब्बी में बैठने की सिर्फ़ एक जगह थी, जहां एक छोटी मेज़ के चारों तरफ़ छह लोग सट सट कर बैठ सकते थे। खाना हमेशा मेज़ पर परोसा जाता था, लेकिन कभी-कभी लोग अपने बंक पर लेटे लेटे ही खाना खाते थे।” आबिद लिखते हैं’जैसे ही मैं पनडुब्बी में घुसा डीज़ल की गंध मेरे नथुनों से टकराई और मुझे उलटी सी आने लगी। पूरी पनडुब्बी में डीज़ल की महक बसी हुई थी, यहां तक कि सारे कंबलों तक से डीज़ल की गंध आ रही थी। ये देख कर मेरा सारा उत्साह जाता रहा कि अगले तीन महीने हमें ऐसे माहौल में बिताने होंगे।’
पनडुब्बी में अजीब तरह का खाना
नेताजी की पनडुब्बी यू-180 को मई, 1942 में जर्मन नौसेना में शामिल किया गया था। नेताजी की यात्रा के दौरान इसके कमांडर वर्नर मुसेनबर्ग थे। क़रीब एक साल बाद अगस्त, 1944 में प्रशांत महासागर में मित्र देश की सोनाओं ने इसे डुबो दिया था और इसमें सवार सभी 56 नौसैनिक मारे गए थे। पनडुब्बी पर सवार नौसैनिकों के लिए सैनिक राशन था, मोटी ब्रेड, कड़ा मांस, टीन के डिब्बे में बंद सब्ज़ियां जो देखने और स्वाद में रबड़ जैसी थीं।
मैं सुभाषचंद्र बोस अपने देशवासियों को संबोधित कर रहा हूं
कील से पनडुब्बियों का एक क़ाफ़िला रवाना हुआ था जिसकी बोस की पनडुब्बी एक हिस्सा थी. कील से कुछ दूरी तक तो जर्मन नौसेना का समुद्र पर पूरा नियंत्रण था। इस वजह से जर्मन यू-बोट क़ाफ़िले को पानी की सतह के ऊपर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई. वो डेनमार्क के समुद्री तट के साथ चलते हुए स्वीडन पहुंच गए. क्योंकि स्वीडन इस लड़ाई में तटस्थ था इसलिए वहाँ कुछ सावधानी बरतने की ज़रूरत थी। दो दिनों के आराम के बाद नेताजी एक जापानी युद्धक विमान में बैठ कर टोकियो पहुंचे। वहां उन्हें राजमहल के सामने वहां के सबसे मशहूर इम्पीरियल होटल में ठहराया गया। उस होटल में उन्होंने जापानी नाम मातसुदा के साथ चेक इन किया, लेकिन कुछ ही दिनों में उनके सारे छद्म नाम ज़ियाउद्दीन, मज़ोटा और मातसुदा पीछे छूट गए। एक दिन भारत के लोगों को रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनाई दी, “पूर्वी एशिया से मैं सुभाषचंद्र बोस अपने देशवासियों को संबोधित कर रहा हूं।”
दो बार जोधपुर आए थे सुभाषचंद्र बोस
दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर स्वतंत्रता सैनानी और राजस्थान स्वाधीनता सैनानी समिति के समन्वयक स्व. महावीरप्रसाद व्यास आतू सा ने एक भेंट में ये संस्मरण सुनाए थे कि वे दो बार जोधपुर आए थे।” बोस का लिबास ऐसा था- सफेद चोला, सफेद धोती, सफेद चादर, सन्यासियों के जैसे भगवा रंग के कपड़े के जूते और टेढ़ी टोपी। एक बार वे तत्कालीन ‘स्टेट होटल में ठहरे थे, जो आज एयरफोर्स रोड पर स्थित आफिसर्स मैस के रूप में जानी जाती है और दूसरी बार वे गिरदीकोट में आम सभा को संबोधित के लिए आए थे। उन्होंने दोनों ही बार प्रदेश के युवाओं में स्वाधीनता का मंत्र फूंका था।
उनसे पौन घंटे मुलाकात हुई थी
उन्होंने बताया था,सर्दियों के दिन थे, शाम हो रही थी, लेकिन हम आजादी का सूरज उदय होने का संदेश आत्मसात करते हुए नेता जी के चेहरे को निहार रहे थे। उनसे पौन घंटे मुलाकात हुई थी। यह उनसे शाम ६ बजे से 6.45 बजे तक हुई हमारी पहली और आखिरी मुलाकात थी। दूसरी बार आने का समय याद नहीं है, क्यों कि उस समय मैं वहां नहीं पहुंच पाया था। हां इतना याद है कि दूसरी बार जब वे आए थे तो गिरदीकोट में सभा के उपरांत उनके जाने के बाद कपड़े का थान नीलाम हुआ था।
सम्मोहक व्यक्तित्व था नेता जी का
आतू सा ने बताया था, अंग्रेजों के जमाने में किसी का नेता जी से मिलना किसी अपराध से कम नहीं होता था, लेकिन नेता जी का सम्मोहक व्यक्तित्व ही एेसा था कि हम युवा उनसे मिलने के लिए लालायित थे। मुझे याद है, यह 26 दिसंबर 1938 की बात है। वो मुंबई जाते समय थोड़े वक़्त के लिए जोधपुर आए थे। अंग्रेजों के जमाने में एयरफोर्स रोड पर स्टेट होटल थी,नेता जी वहीं ठहरे थे। उनके कार्यक्रम को बिल्कुल टॉप सीक्रेट रखा गया था। उस वक्त मैं 13 साल का था, सातवीं कक्षा में था। जसवंत कॉलेज में द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत मुझसे पांच साल बड़े छात्र नेता भाई (बाद में स्वतंत्रता सेनानी) तारकप्रसाद व्यास उनसे मिलने जाते समय मुझे अपने साथ ले गए थे। उन्होंने बताया था, जब स्टेट होटल के गेट पर पहुंचे तो वहांं अंदर नहीं जाने दिया गया। गेट पर सिपाही ने कहा कि साब ने किसी को भी अंदर जाने देने से मना किया है। तब हमने चुपके से अंदर संदेश भिजवाया कि उनसे मिलना है। एेसे में अंदर नेता जी के पास बैठे स्वाधीनता सैनानी रणछोड़दास गट्टानी (बाद में पूर्व सांसद) ने उन्हें बताया कि कुछ युवा आपसे मिलना चाहते हैं।
कौन होता है साब, सबको आने दो!
व्यास ने बताया था, गट्टानी उन्हें ले कर बाहर आए। नेता जी को जैसे ही यह बात पता चली, वे फौरन बाहर आ कर गेट के बीचोबीच खड़े हो गए। आते ही वे गुस्से में बोले,इन्हें अंदर क्यों नहीं आने दिया? इस पर सिपाही ने कहा,स्टेट होटल के अंग्रेज अफसर साब ने कहा है। तब वे बड़ी ही कड़क और रौबीली आवाज में बोले,कौन होता है साब, हमारा ऑर्डर है सबको आने दो! जो मिलना चाहता है, वह अंदर आ सकता है। तब तारकप्रसाद ने उनसे कहा, स्वाधीनता के लिए युवा क्या करें, इसके लिए संदेश दें। उन्होंने बाकायदा संदेश दिया, जिस पर लिखा था- स्टूडेंट्स आर द फ्यूचर ऑफ होप (विद्यार्थी राष्ट्र के भविष्य की आशा)।