36 के आंकड़े वाले देश कैसे हुए एक
गाज़ा में शुरू हुए इजरायल (Israel Hamas War) के हमले के बाद से ही मुस्लिम देशों से एक होने की अपील की जा रही थी। लेकिन सऊदी अरब और ईरान के 36 के आंकड़े से ये एकता कहीं खो रही थी। वायनेट न्यूज के मुताबिक चीन (China) ने 2023 में इन दोनों देशों की दुश्मनी खत्म करने के लिए मध्यस्थता की। जिसके बाद सऊदी अरब और ईरान में कई समझौते हुए। ईरान पर जब इजरायल ने हमला किया तब भी सऊदी अरब ने किसी का पक्ष नहीं लिया। लेकिन इसके बाद अक्टूबर की शुरुआत में सऊदी अरब की राजधानी रियाद में हुए अरब देशों के सम्मेलन में ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची भी पहुंचे थे। उन्होंने यहां पर क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलामन से मुलाकात की थी। इसके बाद बीते बुधवार को ही ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराग़ची ने सऊदी यात्रा पर सीधे साफ शब्दों में कह दिया कि अगर वो क्षेत्रीय स्तर पर बातचीत कर रहे हैं तो ये कोई विकल्प नहीं है बल्कि अनिवार्यता है, जरूरत है। जिससे ये संकेत मिला कि दोनों देशों में संबंध और विकसित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि “साझा चिंताएं और साझा हित हैं, क्षेत्र के सामने खड़े बड़े संकटों का सामना करने में हम सभी के सहयोग और समन्वय को समझते हैं। क्षेत्रीय बातचीत कोई विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्यता है।”
सऊदी प्रिंस को ईरान का निमंत्रण
सिर्फ इतना ही नहीं ईरान के उप-राष्ट्रपति मोहम्मद रेज़ा आरेफ़ ने भी इस सम्मेलन के बाद सऊदी क्राउन प्रिंस से मुलाक़ात की थी। इस दौरान आरेफ़ ने क्राउंन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ईरान आने की निमंत्रण भी दिया। साथ में ये भी बयान दिया कि ईरान और सऊदी अरब के रिश्तों के विकास के लिए एक नई राह खुल गई है। जो अब कभी नहीं बदलेगा।
ईरान और सऊदी में क्यों थी दुश्मनी
ईरान और सऊदी अरब के बीच दशकों से कटुता चली आ रही है जिसका एक मुख्य कारण धार्मिक विभाजन है। क्योंकि ईरान शिया मुसलमान बहुल है और सऊदी अरब सुन्नी मुसलमान बहुल, और शिया और सुन्नी मुसलमानों में वैचारिक संघर्ष है जिसके चलते ये दुश्मनी बढ़ी। ईरान और सऊदी अरब मिडिल ईस्ट यानी मध्य पूर्व में क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं। 1979 में हुई ईरान की “इस्लामी क्रांति” के बाद ईरान ने शिया विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए कई देशों में हस्तक्षेप किया, जो सऊदी अरब को जरा भी रास नहीं आया। इसी के चलते दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ मिडिल ईस्ट में प्रॉक्सी युद्ध भी लड़ते हैं। जैसे- 1-यमन में सऊदी अरब सुन्नी सरकार का समर्थन करता है, जबकि ईरान हूती विद्रोहियों (शिया) का समर्थन करता है। 2- सीरिया में ईरान ने असद सरकार (शिया नेतृत्व) का समर्थन किया हुआ है, जबकि सऊदी अरब ने सुन्नी विद्रोहियों का समर्थन किया है।
3- यही हाल लेबनान में है। ईरान वहां पर “हिज़बुल्लाह” का समर्थन करता है तो जबकि सऊदी अरब सुन्नी गुटों के पक्ष में है।
अमेरिका के संबंध भी दुश्मनी का कारण
अमेरिका को ईरान अपना दुश्मन मानता है, तो वहीं सऊदी अरब के व्यापारिक और सैन्य साझादीरी है। कई दशकों से दोनों देशों के बीच सैन्य और आर्थिक लेनदेन चल रहा है जो ईरान को जरा भी पसंद नहीं। वो इसे क्षेत्रीय सिय़ासत में अमेरिका का दखल मानता है।
कौन है इस दोस्ती का ‘टारगेट’
सऊदी अरब और ईरान की इस दोस्ती का टारगेट कौन है, इस पर एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट कहती है कि रियाद में हुए अरब देशों के हुए सम्मेलन में सऊदी अरब ने एक बड़ा बयान दिया था, जिसमें ट्रंप और इजरायल के बारे में अहम बाते कहीं गई थीं। सऊदी ने इजरायल को युद्ध रोकने की चेतावनी दी थी तो वहीं ट्रंप के सत्ता में वापसी की आलोचना की थी। जानकारों का कहना है कि इस शिखर सम्मेलन से सऊदी अरब समेत मुस्लिम देशों ने अमेरिका में आने वाले ट्रंप प्रशासन को ये संकेत दिया है कि इजरायल के मसले पर उनका संकल्प और एकजुटता किस स्तर की है और वे अमरीकी भागीदारी के संदर्भ में क्या चाहते हैं। क्योंकि ट्रंप इजरायल के समर्थन में हैं, ऐसे में सत्ता में आने के बाद अगर वे इजरायल से समर्थन में ईरान पर कार्रवाई करते हैं, तो सभी अरब देश मिलकर इसका सामना करेंगे। ऐसे में ईरान और सऊदी की दोस्ती का मेन टारगेट ट्रंप और इजरायल है ये कहना गलत नहीं होगा।