322 साल से चली आ रही है परंपरा काशी में रथयात्रा मेले की परंपरा को 322 साल हो गए। मंदिर ट्रस्ट के लोगों की माने तो करीब 322 वर्ष पहले जगन्नाथपुरी पुरी मंदिर से आए पुजारी ने ही अस्सी घाट पर जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की थी। शास्त्रों की मानें तो 1690 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पुजारी बालक दास ब्रह्मचारी वहां के तत्कालीन राजा इंद्रद्युम्न के व्यवहार से नाराज होकर काशी आ गए थे। बाबा बालक दास भगवान को लगे भोग का ही प्रसाद ग्रहण करते थे। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार एक बार भादों में गंगा में बाढ़ आने की वजह से पुरी से प्रसाद पहुंचाने पखवारे भर से अधिक का विलंब हो गया। इतने दिन पुजारी भूखे ही भगवान का ध्यान करते रहे, तब भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में उनको प्रेरणा दी कि वह काशी में ही मंदिर की स्थापना कर भोग लगाना शुरू करें।
मेले की शुरुआत मंदिर ट्रस्ट के अनुसार सन् 1700 में बालक दास ने काशी में रथयात्रा मेला की शुरूआत की। इस रथयात्रा मेले के बारे में एक और प्रसंग मिलता है, जिसके अनुसार कहा जाता है कि वर्ष 1790 में पुरी मंदिर से काशी आए स्वामी तेजोनिधि ने गंगा तट पर रहकर जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया था। जनश्रुतियों के मुताबिक एक बार तेजोनिधि के स्वप्न में भगवान जगन्नाथ आए और पुरी मंदिर के स्वामी रहे तेजोनिधि से कहा कि बाबा विश्वनाथ की नगरी में भी उनकी पूजा होनी चाहिए और वह काशी में विराजमान होना चाहते है। इसके बाद स्वामी तेजोनिधि ने स्थानीय भक्तों के सहयोग से रथयात्रा की शुरुआत की।
दर्शन से मोक्ष लाभ, बन जाते हैं बिगड़े काम प्रभु जगन्नाथ को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता हैं। कहा जाता है कि इनके दर्शन मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सारे मनोरथ पूरे होते हैं। बिगड़ी बन जाती है। यानी भगवान विष्णु के दर्शन के बराबर फल इनके दर्शन से मिलता है। यही वजह है कि जीवन की कामनाओं की पूर्ति के लिए देश के कोने-कोने से लोग इस मेले में खिंचे चले आते हैं।
प्रभु के प्रेम का रंग पीला
भगवान जगन्नाथ को पीले परिधान, पुष्प और फल अधिक पसंद हैं। इसीलिए प्रभु के रथ को पीली पताकाओं, लतरों, पीले फूलों से सजाया जाता है। देवी सुभद्रा के स्वरूप को सांवरे और बलभद्र के स्वरूप को नीले रंग की वस्तुओं से सजाया जाता है।
रथयात्रा में ससुराल बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में भगवान जगन्नाथ डोली (पालकी) पर सवार हो कर निकलते हैं। तीनों भाई-बहन डोली पर सवार हो कर शहर के विभिन्न मार्गों से होते हुए रथयात्रा पहुंचते हैं। यहां उनकी ससुराल बताई जाती है। ऐसे में रथयात्रा चौराहे से थोड़ा आगे सड़क के मध्य रथ सजता है और इसे गर्भगृह का रूप दे दिया जाता है। ट्रस्ट के सचिव आलोक शाहपुरी के अनुसार वाराणसी में भी पुरी की तरह ही सारी रस्म और विधान पूरे किए जाते हैं।
14 पहिए वाले रथ पर विराजमान होते हैं तीन भाई बहन के देव विग्रह
पुरी की तरह ही काशी में भी भगवान जगन्नाथ तीन दिनों के लिए पंडित बेनीराम बाग के सिंहद्वार पर आते हैं जहां पर देव विग्रहों को 14 पहिए वाले रथ पर विराजमान कराया जाता है। यह रथ 20 फीट चौड़ा और 18 फीट चौड़ा होता है। मंदिर नुमा अष्टकोणीय रथ पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा के दर्शन के लिए तीन दिनों तक भक्तों का तांता लगा रहता है।
रथयात्रा मेला और नानखटाई रथयात्रा मेले में नानखटाई लोगों के आकर्षण का विशेष केंद्र होती है। रथयात्रा मेले में भगवान जगन्नाथ को वाराणसी की इस विशेष मिठाई का भोग लगाया जाता है। यही कारण है कि तीन दिवसीय रथयात्रा मेले में नानखटाई का विशेष महत्व है। वैसे तो नानखटाई पूरे साल मिलती है मगर रथयात्रा के मेले में इसका अलग ही महत्व होता है। नानखटाई की यह खासियत होती है कि यह मुंह में रखते ही घुल जाती है। रथयात्रा के मेले में नानखटाई के 40 से अधिक फ्लेवर लोगों को आकर्षित करते हैं। रथयात्रा के मेले में चॉकलेट,नशीला और स्ट्रॉबेरी सहित नानखटाई के कई आकर्षक फ्लेवर उपलब्ध होते हैं। इस मेले में वाराणसी ही नहीं बल्कि लखनऊ, कानपुर और आगरा तक की नानखटाई लोगों के लिए आकर्षण का बड़ा केंद्र होती है। श्रद्धालुओं के साथ ही नानखटाई के व्यवसाय से जुड़े व्यापारियों को भी रथयात्रा मेले का बेसब्री से इंतजार रहता है। नारियल, काजू, किशमिश और पिसूते से बनी नानखटाई महंगी तो जरूर होती है मगर इसका गजब का स्वाद लोगों का मन मोह लेता है।