माता मंदिरों के पहाड़ों पर होने के संबंध में जानकारों का कहना है कि पूर्व समय से ही इन स्थानों यानि पहाड़ों को साधना केंद्र के रूप में जाना जाता था। पहले ऋषि-मुनि ऐसे स्थानों पर सालों तपस्या करके सिद्धि प्राप्त करते थे। दरअसल पहाड़ों पर एकांत होता है। एकांत ने ही देवी मंदिरों के लिए पहाड़ों को महत्व दिया है।
पहाड़ों पर मन एकाग्र आसानी से हो जाता है। मौन, ध्यान और जप आदि कार्यों के लिए एकांत की जरूरत होती है और इसके लिए पहाड़ों से अच्छा कोई स्थान नहीं हो सकता। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों पर इंसानों का आना-जाना कम ही रहता है, जिससे वहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अपने असली रुप में जीवित रह पाता है।
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एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि सौन्दर्य इंसान को स्फूर्ति और ताजगी प्रदान करता है। कई बार तो डॉक्टर भी लोगों को पहाड़ी इलाके में कुछ दिन बिताने की सलाह देते हैं। यह भी माना जाता है कि निचले स्थानों की बजाय अधिक ऊंचाई पर इंसान का स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
लगातार ऊंचे स्थान पर रहने से जमीन पर होने वाली बीमारियां खत्म हो जाती हैं। वहीं ऐसे में पहाड़ी स्थानों पर इंसान की धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाओं का विकास जल्दी होता है।
पहाड़ों पर दैवीय स्थल होने की वजह यह है कि देवी उमा यानि पार्वती पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं। जहां तक पहाड़ों वाली माता का संबंध है तो उसका मुख्य कारण ये है कि देवी का जन्म यहीं हुआ। इस स्थान को देव भूमि भी कहते हैं, इसका कारण ये भी है कि इसी स्थान को भगवान शिव के निवास स्थान के रूप में भी जाना जाता है।
वहीं देखा जाए तो देवी राक्षसों के नाश के लिए अवतरित हुईं थीं। ऐसे में यह भी माना जाता है कि राक्षस मैदानी इलाके से आते थे और देवी पहाड़ों से उनको देख उनका वध कर देती थीं। इसलिए भी देव स्थान ऊंचे पहाड़ों पर हैं।
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देश के कुछ खास देवी मंदिर… 1. माता वैष्णो देवी –वैष्णो देवी माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं। ये मंदिर जम्मू और कश्मीर के जम्मू जिले में कटरा नगर में त्रिकुटा पहाड़ियों पर है। ये मंदिर 5,200 फीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर है। हर साल लाखों तीर्थयात्री मंदिर का दर्शन करते हैं। माता वैष्णो देवी को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। एक प्रसिद्ध प्राचीन मान्यता के अनुसार, माता वैष्णो के भक्त श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने उसकी लाज रखी और दुनिया को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया।
यह मन्दिर भारत के देवभूमि उत्तराखण्ड के टनकपुर में अन्नपूर्णा शिखर पर 5500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह 108 सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहां पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था। प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहां आते हैं। “मां वैष्णो देवी” जम्मू के दरबार की तरह पूर्णागिरी दरबार में हर साल लाखों की संख्या में लोग आते हैं।
3. नैना देवी मंदिर –
ये मंदिर देवभूमि उत्तराखंड के नैनीताल जिले में है। नैनी झील के उत्त्तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। 1880 में भूस्खलन से यह मंदिर नष्ट हो गया था। बाद में इसे दुबारा बनाया गया। यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं।
नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे, तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। नैनी झील के स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। इसीसे प्रेरित होकर इस मंदिर की स्थापना की गई है।
4. हाट काली मंदिर –
देवभूमि उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के बीच यहां महाकाली का एक मंदिर है, जिसका नाम है हाट काली…
जहां के संबंध में मान्यता है कि यहां स्थित एक देवदार के पेड़ पर चढ़कर महाकाली स्वयं भगवान विष्णु व भगवान महादेव को आवाज लगाती थीं।
कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था।
इसी दौरान पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के बीच यहां महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धारण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जग्गनाथ ( भगवान विष्णु ) व भुवनेश्वर नाथ ( भगवान शिव ) को आवाज लगानी शुरू कर दी।
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लोगों का कहना है कि यह आवाज काफी पहले तक तकरीबन हर रोज सुनाई देती थी, लेकिन यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी, वह व्यक्ति सुबह तक यमलोक पहुंच चुका होता था।
मान्यता के अनुसार उत्तराखण्ड़ का गंगावली क्षेत्र जो कि हिमालय का सबसे अद्भुत क्षेत्र है। यहां मां काली का साक्षात् वास है,सदा जाग्रत रहते हुए मां काली की विश्राम लीला का केन्द्र भी यही है। आज यहां आदि शक्ति महाकाली एक मंदिर है। जहां महाविद्याओं की जननी हाटकाली की महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का बिस्तर लगाया जाता है और सुबह बिस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों, क्योंकि बिस्तर में सलवटें पडी रहती हैं।
5. मनसा देवी मंदिर –
मनसा देवी का मंदिर हरिद्वार में हरकी पौड़ी के पास गंगा किनारे पहाड़ी पर है। दुर्गम पहाड़ियों और पवित्र गंगा के किनारे स्थित मनसा देवी का उल्लेख पुराणों में है। ‘मनसा’ शब्द का प्रचलित अर्थ इच्छा है। मान्यता है कि मनसा देवी का जन्म संत कश्यप के मस्तिष्क से हुआ है। उन्हें नाग राजा वासुकी की पत्नी भी माना जाता है।
हरिद्वार के चंडी देवी और माया देवी के साथ मनसा देवी को भी सिद्ध पीठों में प्रमुख माना जाता है। मनसा भगवान शंकर की कठोर तपस्या करके वेदों का अध्ययन किया और कृष्ण मंत्र प्राप्त किया, जो कल्पतरु मंत्र कहलाता है। इसके बाद देवी ने कई युगों तक पुष्कर में तप किया। भगवान कृष्ण ने दर्शन देकर वरदान दिया कि तीनों लोकों में तुम्हारी पूजा होगी।
6. ज्वाला देवी मंदिर –
ये मंदिर हिमाचल प्रदेश की कांगडा घाटी से 30 दूर पहाड़ी पर है। यह मंदिर 51 शक्ति पीठों में शामिल है। उन्हें जोता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों को जाता है। उन्हीं के द्वारा इस पवित्र धार्मिक स्थल की खोज हुई थी। इस स्थान पर माता सती की जीभ गिरी थी।
इस मंदिर में माता के दर्शन ज्योति रूप में होते है। ज्वालामुखी मंदिर के समीप में ही बाबा गोरा नाथ का मंदिर है। जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद के करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया। मंदिर के अंदर माता की नौ ज्योतियां है जिन्हें, महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजी देवी के नाम से जाना जाता है।
7. मैहर माता मंदिर –
मध्य प्रदेश के सतना जिले में स्थित मैहर माता मंदिर के बारे में श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां रात 2 से 5 बजे के बीच रुकने से मौत हो सकती है? दर्शन के लिए श्रद्धालुओं को 1,063 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख भी लगा हुआ है। यहां भगवान नृसिंह की प्राचीन मूर्ति विराजमान हैं, जिसे साल 502 में लगवाया गया था। साथ ही, दो महान योद्धाओं आल्हा तथा ऊदल का भी दर्शन कर उनकी वीरता और महानता की वंदना करते हैं। आल्हा व ऊदल मां के बहुत समर्पित भक्त थे। उन्होंने 1182 में पृथ्वीराज चैहान से युद्ध भी किया था।
मां शारदा के मंदिर को रात 2 से 5 बजे के बीच बंद कर दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि इसी अवधि में ये दोनों भाई मां के दर्शन करने आते हैं। दोनों भाई मां के दर्शन, पूजन के साथ ही उनका श्रृंगार भी करते हैं। इसलिए रात को 2 से 5 बजे के बीच यहां कोई नहीं ठहरता। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि जो हठपूर्वक यहां रुकने की कोशिश करता है, उसकी मौत हो सकती है।
8. सलकनपुर देवी मंदिर –
मध्य प्रदेश के सीहोर सलकनपुर में विराजी मां विजयासन दर्शन देकर भक्तों का हर दुख हर लेती हैं। 14 सौ सीढ़ियों का सफर तय कर भक्त माता के दरबार पहुंचते हैं। सलकनपुर में विराजी सिद्धेश्वरी मां विजयासन की ये स्वयंभू प्रतिमा माता पार्वती की है जो वात्सल्य भाव से अपनी गोद में भगवान गणेश को लिए हुए बैठी हैं।
इसी मंदिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती और भगवान भैरव भी विराजमान हैं। पुराणों के अनुसार, देवी विजयासन माता पार्वती का ही अवतार हैं, जिन्होंने देवताओं के आग्रह पर रक्तबीज नामक राक्षस का वध कर संपूर्ण सृष्टि की रक्षा की थी। देवी विजयासन को कई भक्त कुल देवी के रूप में पूजते हैं।
9. मां बम्लेश्वरी मंदिर –
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ में स्थित है मां बम्लेश्वरी मंदिर। इसे कामाख्या नगरी भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ के इतिहास में कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी बेहद लोकप्रिय है।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन था। वे नि:संतान थे। संतान की कामना के लिए उन्होंने भगवती दुर्गा और शिवजी की उपासना की। इसके फलस्वरूप उन्हें एक साल के अंदर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वीरसेन ने पुत्र का नाम मदनसेन रखा। मां भगवती और भगवान शिव के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए राजा ने मां बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया।
10. पावागढ़ शक्तिपीठ –
काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर शक्तिपीठों में से एक है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहा जाता है, जहां सती के अंग गिरे थे। पावागढ़ में मां के वक्षस्थल गिरे थे। इसी तरह पावागढ़ के नाम के पीछे भी एक कहानी है। कहा जाता है कि इस दुर्गम पर्वत पर चढ़ाई लगभग असंभव काम था।
चारों तरफ खाइयों से घिरे होने के कारण यहां हवा का वेग भी चहुंतरफा था, इसलिए इसे पावागढ़ अर्थात ऐसी जगह कहा गया जहां पवन का वास हो। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पावागढ़ मंदिर ऊँची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। काफी ऊंचाई पर बने इस दुर्गम मंदिर की चढ़ाई बेहद कठिन है।