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भगवान शिव का क्रीडा स्थल : 15000 फुट की ऊंचाई पर मौजूद है ये झील

जल प्रताप, जिसकी कंदराओं के पीछे भस्मासुर से बचते हुए पीछे थे भगवान शिव जी…

Nov 21, 2020 / 02:37 pm

दीपेश तिवारी

Very special temple of lord shiv with lake

Very special temple of lord shiv with lake

यूं तो भारत में भगवान शंकर के कई प्रमुख मंदिर हैं, लेकिन इन्हीं मंदिरों में शुमार मणि महेश मंदिर हिमाचल प्रदेश में मौजूद है। वहीं इस मंदिर के पास स्थित 15000 फुट की ऊंचाई पर मौजूद झील को पौराणिक कथाओं में भगवान शिव का क्रीडा स्थल माना गया है।

इस मणि महेश मंदिर में भोले नाथ के दर्शनों के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। चाहे फिर वह अमरनाथ यात्रा हो, कैलाश मानसरोवर यात्रा हो या फिर मणि महेश यात्रा। मणि महेश यात्रा पर जाने का मौका श्रद्धालुओं को जुलाई-अगस्त के दौरान ही मिल पाता है, क्योंकि तब यहां का मौसम कमोबेश ठीक रहता है। इन दिनों में यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जोकि जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। 15 दिनों तक चलने वाले मेले के दौरान प्रशासन की ओर से सभी प्रकार के प्रबंध किये जाते हैं।

हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के पूर्वी भाग में भरमौर नामक तहसील है। इस क्षेत्र में कैलाश शिखर समुद्र तल से लगभग 19 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां 15000 फुट की ऊंचाई पर मौजूद झील को पौराणिक कथाओं में भगवान शिव का क्रीडा स्थल माना गया है। जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले मेले में हिमाचल सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं। यात्रा चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से शुरू होती है।

यहां से भोले की चांदी की छड़ी को लेकर यह यात्रा शुरू होती है और राख, खड़ामुख आदि क्षेत्रों से गुजरते हुए भरमौर पहुंचती है। भरमौर में छड़ी का पूजन किया जाता है और फिर यह हरसर और धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है। भरमौर में ही चौरासी स्थल नामक मंदिर समूह है जहां भगवान मणि महेश का मंदिर है। चौरासी मंदिर का नाम इसके परिसर में स्थित 84 छोटे-छोटे मंदिरों के आधार पर रखा गया है।

चौरासी सिद्धों की तपोस्थली…
वैसे तो हिमाचल में पूरे साल मेले और त्यौहार होते रहते हैं, मगर चंबा मणिमहेश भरमौर जातर का विशेष महत्व है। माना जाता है कि यहां ब्रम्हाणी कुंड में स्नान किए बिना मणिमहेश यात्रा अधूरी रहती है।

आदिकाल से प्रचलित मणिमहेश यात्रा कब से शुरू हुई यह तो पता नहीं मगर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह बात सही है कि जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे। ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे।

वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं, जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ व चौरासी सिद्ध वहां-लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं।

यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं। भगवान शंकर ने दिया आशीर्वाद भगवान शंकर के ही कहने पर माता ब्रम्हाणी नए स्थान पर रहने को तैयार हुईं तथा भगवान शंकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि जो भी मणिमहेश यात्री पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान नहीं करेगा उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाएगी।

यानी मणिमहेश जाने वाले प्रत्येक यात्री को पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान करना होगा, उसके बाद ही मणिमहेश की डल झील में स्नान करने के बाद उसकी यात्रा संपूर्ण मानी जाती है। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है।

भगवान शिव जी व भस्मासुर…
भरमौर से जब मणि महेश की यात्रा पर श्रद्धालु निकलते हैं तो पूरा यात्रा मार्ग प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर होने के कारण वह प्रसन्न हो जाते हैं। चार-पांच घंटे की इस यात्रा में बच्चों को ले जाना थोड़ा मुश्किल होता है। इस यात्रा के दौरान पड़ने वाले धांचू क्षेत्र में मौजूद विशाल जलप्रपात के बारे में एक पौराणिक कथा सुनायी जाती है। कहा जाता है कि एक बार भगवान शिव जी भस्मासुर से बचते हुए इसी प्रपात की कंदराओं के पीछे आ कर छिप गये थे। यह बात जान कर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर भस्मासुर को भस्म कर दिया। इसके बाद भगवान शिव यहां से निकले।
मणि महेश झील जोकि 15000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है, वह बर्फीली चोटियों से घिरी हुई है। इस झील का नीले रंग का पानी विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर करने वाला माना गया है। मणि महेश की यात्रा पर आए श्रद्धालु इस झील में स्नान के बाद ही भगवान की पूजा अर्चना करते हैं। यह भी मान्यता है कि झील की परिक्रमा कर जो मन्नत मांगी जाती है वह अवश्य पूरी होती है।
मान्यता है कि राधा अष्टमी के दिन कैलाश पर्वत पर सूर्य देव की पहली किरण जब पड़ती है तो शिखर पर प्राकृतिक रूप से बने शिवलिंग से खूबसुरत आभा निकलती है। यह किरणें जब झील में पड़ती हैं तो इसका पानी अमृत के जैसा हो जाता है। कहते हैं कि इस दौरान इस झील में स्नान से सभी प्रकार के पापों से छुटकारा मिल जाता है।
ऐसे पहुंचे यहां

यहां तक पहुंचने के लिए निकटतम रेलवे मार्ग पठानकोट है। पठानकोट से चंबा की दूरी 120 किलोमीटर है। पठानकोट से यहां तक आने के लिए बस और टैक्सी सेवाएं आसानी से उपलब्ध हैं। चंबा आने के बाद आगे की यात्रा के लिए आसानी से राजकीय बस और टैक्सी की सेवाएं मिल जाती हैं।

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