यही नहीं, इन लोगों के यहां आने की तारीख, धार्मिक अनुष्ठान के ब्योरे क्रमबद्ध पंडों के बही खाते में उपलब्ध हैं। पंडा केदारनाथ के वंशज प्रयागवाल सभा के मंत्री मूल नारायण शर्मा (निशान गाय बछडा) ने बताया कि यहां पर 1484 पंडा परिवार धर्मकांड से अपनी आजीविका चला रहे हैं। पंडों के पास उनके यजमानों के सात पुश्तों के दुर्लभ संकलन के बही-खातों के अतिरिक्त सैकडों साल पुराने ऐतिहासिक और पौराणिक वंशावली भी उपलब्ध है। उनका दावा है कि उनके पूर्वज भगवान राम के पुरोहित थे।
उन्होंने यह भी दावा किया कि उनके पास सिसोदिया वंश (महाराणा प्रताप) और डूंगरपुर राज घराने की वंशावली है। पंडा समाज के पास राजा-महाराजाओं और मुस्लिम शासकों तक की वंशावली उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि पंडे अपने बही-खाते से किसी आम और खास शख्स के बारे में बहुत कुछ बता सकते हैं। तीर्थ यात्री और पुरोहितों का संबंध गुरू-शिष्य पंरपरा का द्योतक है। पंडों की यजमानी दान तथा स्नान के आधार पर चलती है। ‘हमारा यजमानों से भावनात्मक संबंध है। यजमानों के पास खानदान की वंशावली भले न हो, पर हम पुरोहितों के पास उनके सात पुश्तों की वंशावली उपलब्ध है।
देश भर के अनगिनत लोगों की वंशावलियों के ब्योरे बही में पूरी तरह सुरक्षित हैं। पंडों की बिरादरी के बीच सूबे के जिले ही नहीं, देश के प्रांत भी एकदम व्यवस्थित ढंग से बंटे हुए हैं। अगर किसी जिले का कुछ हिस्सा अलग कर नया जिला बना दिया गया है तो भी तीर्थ यात्री के दस्तावेज मूल जिला वाले पुरोहित के नियंत्रण में ही रहते हैं। पुरोहित परिवार की संख्या अधिक होने पर भी अपने पूर्वजों से मिले प्रतीक चिन्ह को एक ही बनाए रखते हैं। उन्होंने बताया कि प्रत्येक पंडे का एक निश्चित झंडा या निशान होता है। कोई झंडा वाला पंड़ा, शंख वाला पंडा, डंडे वाला पंडा और घंटी वाले पंडा, काली मछली,गाय बछडा, हाथी सोने का नारियल आदि पताका निशान जरूर दिखते हैं। पंडों का यह प्रतीक चिन्ह उनके कुल के बारे में बताता है। अपने पूर्वजों के बारे में तीर्थ यात्री को सिर्फ दो-चार पीढ़ी पहले का पूर्वज आखिर जब तीर्थ यात्रा पर आता था तो किस प्रतीक चिन्ह वाले पंडे के जिम्मे उसको धार्मिक अनुष्ठान कराने का
काम था। इतनी जानकारी ही उसके पूर्वजों के बारे में सब कुछ बयान करने के लिए काफी होती है।
दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने वंश पुरोहित की पहचान कराने वाली इन पताकाओं के निशान भी अपनी पृष्ठभूमि में इतिहास समेटे हुए हैं। भगवान राम ने लंका विजय के पश्चात प्रयाग के गोकुल प्रसाद मिश्र के पूर्वज को अपने रघुकुल का पुरोहित माना, उनके वंशज होने का दावा पुरोहित संजय कुमार मिश्र करते हैं। अधिकांश तीर्थपुरोहितों की बही लाल रंग की होती है। बही का कवर लाल रंग होने के बारे में उन्होंने कहा कि लाल रंग पर कीटाणुओं का असर नहीं होता है। बहियों को लोहे के संदूक में रखा जाता है। सामान्यत: तीर्थ पुरोहित अपने संपर्क में आने वाले किसी भी यजमान का नाम-पता आदि पहले एक रजिस्टर या कापी में दर्ज करते हैं। बाद में इसे मूल बही में उतारते हैं। यजमान से भी उसका हस्ताक्षर उसके द्वारा दिए गए विवरण के साथ ही कराया जाता है।
पुरोहितों के खाता-बही में यजमानों का वंशवार विवरण वर्णमाला के व्यवस्थित क्रम में आज भी संजो कर रखा हुआ है । पहले यह खाता-बही मोर पंख बाद में नरकट फिर जी-निब वाले होल्डर और अब अच्छी स्याही वाले पेन से लिखे जाते हैं। टिकाऊ होने की वजह से सामान्यतया काली स्याही उपयोग में लाई जाती है। मूल बही का कवर मोटे कागज का होता है। जिसे समय-समय पर बदला जाता है। बही को मोड़ कर मजबूत लाल धागे से बांध दिया जाता है।
परन्तु अब इन बहियों का रखरखाव चिंता का विषय बनता जा रहा है। उन्होने बताया कि साधन बदल गए लेकिन लाखों-करोड़ों रिकॉर्डों को संभालने की व्यवस्था नहीं बदली। अभी तक पंडे लोग व्यक्तिगत तौर पर ही बही को सहेजकर रखते हैं, कोई विशेष या सामूहिक व्यवस्था नहीं है। उन्होने बताया कि ये खाते तो पंडों की व्यक्तिगत संपत्ति जैसे हैं जिन्हें वो किसी और को नहीं दे सकते हैं। सच्चाई तो यह है कि खातों के कागज कमजोर पड़ते जा रहे हैं। पन्नों का रंग पीला पड़ता जा रहा है, लिखावट मिटती जा रही है। ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या आने वाले समय में भी इनका उपयोग हो पाएगा।