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मध्यप्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम के प्रबंधक एमएल शर्मा बताते हैं ‘भारतीय इतिहास में चंदेरी के बुनकरों का उल्लेख १३०५ में अलाउद्दीन खिलजी के आने के बाद से सामने आया है। इस दौरान २० हजार बुनकर मौलाना मजिबुद््दीन उलुफ के अनुयाइयों के रूप में बंगाल के लखनोती से चंदेरी आए थे। १९३० में जापानी सिल्क से चंदेरी साड़ी बनाई जाती थी, लेकिन बाद में जापान से धागा मंगवाना बंद कर दिया और अब चंदेरी साडि़यों का धागा आंध्रप्रदेश में पाए जाने वाली कोलिकंडा जड़ से बनाया जाता है। चंदेरी को लेकर एक रोचक बाद यह भी है कि १९४० के बाद रंगीन चंदेरी साडि़यां चलन में आई, उससे पहले सिर्फ सफेद साडि़यां ही बनती थी। टैक्नोलॉजी के विकास के कारण अब गहरे रंग भी रेशमी धागे पर टिकने लगे हैं। चंदेरी की पहचान पाइपिंग किनार के रूप में भी की जाती है, जो २४ ग्राम सूरत सिल्क की जरी किनारी होती है।