मैं कुछ भी लिखूं उसको लेकर बहसें शुरू हो जाती हैं। विवाद मेरे पीछे-पीछे चलते हैं। जब ‘इदन्नमम‘ छपा तब हिंदी के कई आलोचकों और संपादकों ने कहा कि क्या गांव ऐसा होता है? क्या ससुर ऐसे होते हैं? क्या स्त्रियां इतनी स्वतंत्रता के साथ अपना जीवन जीती हैं? मैंने इन बातों को हंसकर टाल दिया। क्योंकि जब आपने वो जीवन देखा ही नहीं है तो यह कैसे जान सकते हैं कि उस जीवन से उपजा हुआ यथार्थ कैसा होगा। मेरे पात्र केवल संघर्ष करके नहीं रह जाते, वे समाधानों के लिए जद्दोजहद भी करते हैं। वे फैसले लेते हैं। फैसलों का विरोध करने वाले लोगों का सामना भी करते हैंं। ‘इदन्नमम‘ का व्याकरण नए समय को शब्द देता है।
देखिए, धारा के विपरीत जाकर सोचना और जो बनी बनाई धारणाएं हैं, उनको ध्वस्त करते हुए नए चिंतन को गति देना मेरे कथाकार मन में है। यह एक तरह से कुलीनतंत्र के प्रतिवाद का भी साहित्य है। मुझे लगता था कि अगर किसी बात को लेकर आपके मन में प्रतिरोध है और लिख सकते हैं तो लिखना चाहिए। मैंने इस बात की परवाह नहीं की थी कि इस समय आलोचक और संपादक कौन-कौन से निर्देश जारी कर रहे हैं। लोगों में कई बार सच कहने की हिम्मत नहीं होती तो कभी सच सुनने की। मैंने इसी तनी हुई रस्सी पर अपने को साधते हुए कुछ सच कहे हैं- अक्सर लक्ष्मण रेखाओं को लांघ जाने का खतरा भी उठाया है।
हमारा समाज कई जातियों में बंटा हुआ है। कई हाशिए के लोग भी हमारे समाज में हैं। सडक़ों, गलियों में घूमते या अखबारों की अपराध-सुर्खियों में दिखाई देनेवाले कंजर, सांसी, नट, मदारी, सपेरे, पारदी, हाबूडे$, बनजारे, बावरिया, कबूतरे- न जाने कितनी जनजातियां हैं जो सभ्य समाज के हाशियों पर डेरा लगाए सदियां गुजार देती हैं- यह उपन्यास उन्हीं के वास्तविक यथार्थ की जटिल नाटकीय कहानी है, जिसमें मैंने उनके भीतर की दुनिया को बाहर लाने का प्रयास किया है। पढऩे वालों ने इस उपन्यास को हाथों-हाथ लिया है।
‘चाक’ का दूसरा नाम है समय चक्र। चाक घुमेगा नहीं तो कुछ बनाएगा भी नहीं। वह घूमेगा और मिट्टी को बिगाडक़र नया बनाएगा- नए रूप में ढालेगा। अतरपुर गांव को उसमें रहने वाली किसान पत्नी सारंग को भी ढालकर नया बना रहा है ‘चाक‘। लेकिन बनाना एक यातना से गुजरना भी तो है। न चाहते हुए भी सारंग निकल पड़ी है ‘ढाले‘ जाने की इस यात्रा पर।
बेहद आत्मीय, पारिवारिक सहजता के साथ मैंने इस उपन्यास की नायिका शीलो और उसकी ‘स्त्री-शक्ति’ को फोकस किया है, पर कई बार पता नहीं चलता कि ‘झूलानट’ की कहानी शीलो की है या बालकिशन की! हां, अंत तक प्रकृति और पुरुष की यह ‘लीला‘ एक अप्रत्याषित उदात्त अर्थ में जरूर उद्भासित होने लगती है। इस अर्थ में निश्चय ही यह विशिष्ट उपन्यास है।
नहीं, ‘स्त्री विमर्श‘ पुरुष के प्रतिरोध या प्रतिशोध का विमर्श नहीं है। यह पुरुष में एक सहयोगी की भूमिका की तलाश का विमर्श है। धर्म और परंपरा ने स्त्री को कमजोर बनाया है और यह धर्म और परंपरा पुरुष प्रधान समाज ने उस पर थोपी है। स्त्रियों की वेशभूषा के निर्धारण को ही आधार बना दिए जाने के कारण आज का स्त्री विमर्श डगमगा रहा है, इसे फिर से दिशा देने की जरूरत है।
उपन्यास- बेतवा बहती रही, इदन्नमम, चाक, झूलानट, अल्मा कबूतरी, अगनपाखी, विजन, कही ईसुरी फाग, त्रिया हठ, गुनाह बेगुनाह, फरिश्ते निकले