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सतना

Ram leela: सतना शहर में 1897 में हुई थी रामलीला की शुरुआत, 122 वर्ष पुराना है यहां का इतिहास

– 122 साल पुराना है सतना में रामलीला का सफर- जिनसे मिलती है आदर्श आचरण की प्रेरणा- 1897 में हुई थी रामलीला की शुरुआत- 100 से ज्यादा मंडलियां आज कर रही हैं मंचन- टीवी, इंटरनेट व सिनेमा के दौर में भी जुटती है दर्शकों की भीड़- अतीत के झरोखे से अब तक- जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।- जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

सतनाOct 04, 2019 / 04:27 pm

suresh mishra

Satna Ram leela: History of Ramlila in Satna is 122 years old

Satna Ram leela: History of Ramlila in Satna is 122 years old

सतना। रामलीला… ( Ram leela )यानी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों का सजीव मंचन। शारदेय नवरात्र शुरू होते ही शक्ति की आराधना के बीच गांवों से लेकर शहर तक भगवान श्रीराम की लीलाओं का सजीव चित्रण रामलीला में देखने को मिल रहा। सतना में रामलीला का इतिहास 122 वर्ष पुराना है। शुरुआत 1897 में बिहारी चौक से हुई थी। तब न तो स्थानीय कलाकार थे, न पर्याप्त संसाधन। इसके बावजूद धीरे-धीरे दायरा बढ़ता गया।
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आज जिलेभर में 100 से ज्यादा मंडलियां अलग-अलग स्थानों पर रामलीला करती हैं। श्रीबिहारी रामलीला मंडली, खजुरीताल रामलीला मंडली और डालीबाबा रामलीला मंडली खास है। ज्यादातर कार्यक्रम दशहरे के दौरान ही होते हैं। लेकिन, खजुरीताल की चलित रामलीला मंडली सालभर अलग-अलग स्थानों पर मंचन करती है।
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लालटेन की रोशनी से शुरू सफर में टेक्नोलॉजी का समावेश
सतना में जिस समय रामलीला की शुरुआत हुई थी, उस दौर में न तो बिजली थी न ही आज की तरह आधुनिक म्यूजिक सिस्टम। बिजली नहीं होने से गैस व लालटेन के उजाले से काम चलाया जाता था। मंडली की ओर से इसकी व्यवस्था तो की ही जाती थी, दर्शक भी अपने-अपने घर से लालटेन लेकर आते थे। स्टेज शो के लिए जलती हुई गैस को टीन के अंदर रखा जाता था। उसका एक हिस्सा कटा होता था, जिसमें अलग-अलग कलर की पन्नी लगा देते थे, ताकि कलरफुल लाइटों का फोकस स्टेज पर पहुंच सके। पर्दे तो पहले भी मिल जाते थे। हां, आज जैसे सस्ते व चमक-दमक वाले नहीं होते थे। एक पर्दे को कई साल तक चलाना पड़ता था। ऐसा ही कलाकारों के मुकुट व कपड़ों के लिए करना पड़ता था। लेकिन, नया करने के जुनून व सकारात्मक सोच से आयोजक मंडली हर समस्या का समाधान खोज लेती थी। यही वजह है कि लालटेन की रोशनी से शुरू हुआ रामलीला का सफर आज 122 साल बाद भी उसी उत्साह व आस्था के साथ जारी है। हां, समय के साथ इसमें टेक्नोलॉजी और आधुनिकता का समावेश जरूर हुआ है।
यहां पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं छूट पा रहा मंचन का मोह
कलाकारों व आयोजक मंडली में आज भी आस्था का वही भाव और उत्साह है जो रामलीला के शुरुआती दिनों में था। कई परिवार तीन-तीन पीढिय़ों से इसमें भागीदारी निभाते चले आ रहे हैं। कभी सीता व राम का किरदार निभाने वाले कलाकार आज राजा दशरथ व विश्वामित्र की भूमिका में नजर आते हैं। यानी उम्र के अंतिम पड़ाव में भी रामलीला मंचन का मोह नहीं छोड़ पा रहे। इस उम्र में जो लोग चल-फिर पाने में असमर्थ हैं, उन्हें रामलीला के मंच से संवाद करते देखा जा सकता है। हालांकि जितना महत्व मंच पर नजर आने वाले कलाकारों का होता है उससे कहीं ज्यादा योगदान पर्दे के पीछे उनकी जरूरतें पूरी करने वाली टीम का होता है।
आगे बैठने की होड़
अयोध्या की मंडली द्वारा सबसे पहले शुरू किया गया रामलीला का मंचन आज दूर-दराज गांवों तक पहुंच चुका है। अब स्थानीय स्तर पर कलाकार तैयार होने लगे हैं। लोगों में लगाव बढ़ता गया। यही कारण है कि रामलीला देखने के लिए दूर-दूर से सपरिवार लोग पहुंचने लगे हैं। एक समय था जब दर्शक दीर्घा में आगे बैठने के लिए लोग तीन से चार घंटे पहले पहुंच जाते थे। रामलीला में समाज का आदर्श स्वरूप देखने को मिलता है। इसकी शुरुआत भी इसी उद्देश्य से हुई थी।
म्यूजिक और साउंड सिस्टम
रामलीला में उपयोग होने वाले म्यूजिक व साउंड सिस्टम में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। वर्तमान में उपयोग होने वाले अत्याधुनिक माइक व लाइड स्पीकर जरूर पहले नहीं होते थे। लेकिन, तब कलाकारों की आवाज ही इतनी तेज होती थी कि माइक गैरजरूरी लगते थे। कलाकारों का चयन भी इसी हिसाब से किया जाता था। उनकी आवाज में सुस्पष्टता लाने के लिए तरह-तरह के अभ्यास कराए जाते थे। रावण व परशुराम का रोल ऐसे कलाकारों को ही मिलता था, जिनकी आवाज मोटी हो।

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