सतना में जिस समय रामलीला की शुरुआत हुई थी, उस दौर में न तो बिजली थी न ही आज की तरह आधुनिक म्यूजिक सिस्टम। बिजली नहीं होने से गैस व लालटेन के उजाले से काम चलाया जाता था। मंडली की ओर से इसकी व्यवस्था तो की ही जाती थी, दर्शक भी अपने-अपने घर से लालटेन लेकर आते थे। स्टेज शो के लिए जलती हुई गैस को टीन के अंदर रखा जाता था। उसका एक हिस्सा कटा होता था, जिसमें अलग-अलग कलर की पन्नी लगा देते थे, ताकि कलरफुल लाइटों का फोकस स्टेज पर पहुंच सके। पर्दे तो पहले भी मिल जाते थे। हां, आज जैसे सस्ते व चमक-दमक वाले नहीं होते थे। एक पर्दे को कई साल तक चलाना पड़ता था। ऐसा ही कलाकारों के मुकुट व कपड़ों के लिए करना पड़ता था। लेकिन, नया करने के जुनून व सकारात्मक सोच से आयोजक मंडली हर समस्या का समाधान खोज लेती थी। यही वजह है कि लालटेन की रोशनी से शुरू हुआ रामलीला का सफर आज 122 साल बाद भी उसी उत्साह व आस्था के साथ जारी है। हां, समय के साथ इसमें टेक्नोलॉजी और आधुनिकता का समावेश जरूर हुआ है।
कलाकारों व आयोजक मंडली में आज भी आस्था का वही भाव और उत्साह है जो रामलीला के शुरुआती दिनों में था। कई परिवार तीन-तीन पीढिय़ों से इसमें भागीदारी निभाते चले आ रहे हैं। कभी सीता व राम का किरदार निभाने वाले कलाकार आज राजा दशरथ व विश्वामित्र की भूमिका में नजर आते हैं। यानी उम्र के अंतिम पड़ाव में भी रामलीला मंचन का मोह नहीं छोड़ पा रहे। इस उम्र में जो लोग चल-फिर पाने में असमर्थ हैं, उन्हें रामलीला के मंच से संवाद करते देखा जा सकता है। हालांकि जितना महत्व मंच पर नजर आने वाले कलाकारों का होता है उससे कहीं ज्यादा योगदान पर्दे के पीछे उनकी जरूरतें पूरी करने वाली टीम का होता है।
अयोध्या की मंडली द्वारा सबसे पहले शुरू किया गया रामलीला का मंचन आज दूर-दराज गांवों तक पहुंच चुका है। अब स्थानीय स्तर पर कलाकार तैयार होने लगे हैं। लोगों में लगाव बढ़ता गया। यही कारण है कि रामलीला देखने के लिए दूर-दूर से सपरिवार लोग पहुंचने लगे हैं। एक समय था जब दर्शक दीर्घा में आगे बैठने के लिए लोग तीन से चार घंटे पहले पहुंच जाते थे। रामलीला में समाज का आदर्श स्वरूप देखने को मिलता है। इसकी शुरुआत भी इसी उद्देश्य से हुई थी।
रामलीला में उपयोग होने वाले म्यूजिक व साउंड सिस्टम में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। वर्तमान में उपयोग होने वाले अत्याधुनिक माइक व लाइड स्पीकर जरूर पहले नहीं होते थे। लेकिन, तब कलाकारों की आवाज ही इतनी तेज होती थी कि माइक गैरजरूरी लगते थे। कलाकारों का चयन भी इसी हिसाब से किया जाता था। उनकी आवाज में सुस्पष्टता लाने के लिए तरह-तरह के अभ्यास कराए जाते थे। रावण व परशुराम का रोल ऐसे कलाकारों को ही मिलता था, जिनकी आवाज मोटी हो।