रीवा निवासी नित्यानंद मिश्रा पेशे से अधिवक्ता हैं। लेकिन, इनकी पहचान क्रिमिनल, जमीन-जायदाद जैसे केस लडऩे के कारण नहीं बल्कि एक ऐसे युवा के रूप में है जो जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ते हैं। जहां भी प्रकृति के संरक्षण से जुड़ा मुद्दा आता है, नित्यानंद निर्णायक लड़ाई लडऩे को तैयार रहते हैं। विंध्य के संदर्भ में देखा जाए तो उन्होंने मंदाकिनी के संरक्षण से लेकर नर्मदा को बचाने तक की लड़ाई लड़ी। मैहर पहाड़ी, सरभंगा आश्रम जैसे धार्मिक आस्था के सवाल को भी दमदारी के साथ उठाया।
नित्यानंद ने मंदाकिनी नदी में मिल रहे गंदे नाले व अतिक्रमण को लेकर लड़ाई लड़ी। सरभंगा आश्रम पहाड़ी के पास खनिज विभाग ने खदान स्वीकृत कर दी। इससे जंगल नष्ट होते तो धार्मिक आस्था पर बड़ा सवाल खड़ा हो जाता। नित्यानंद ने याचिका लगाई। अंत में खदान बंद करने के आदेश हुए। मैहर मंदिर पहाड़ी के संरक्षण को लेकर याचिका एनजीटी में लगाई। सीधी के सोन घडिय़ाल को लेकर याचिका भी एनजीटी में लगाई।
जल-जंगल और जमीन को संरक्षित करने तथा गरीबों को खेतिहर किसान बनाने के लिए 25 साल की उम्र से ही आंदोलन को हिस्सा बना लिया। 2006 में वन अधिनियम आया तो रीवा जिले के 200 से अधिक गांवों में पदयात्रा निकाली। डभौरा जंगल के आस-पास रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश यादव का यह जुनून कामयाब रहा। कैलाशपुर में 24, गढ़वाई में 74, गेदुरहा में 14, कुलहुआ में 100, नगरी में 30 आदिवासी भूमिहीन परिवारों को खेतिहर किसान बनाने के लिए पट्टा मिला।
जगदीश यादव बताते हैं कि क्षेत्र के दर्जनों कुआं, तालाब, पहाड़ के जंगलों को संरक्षित करने के लिए आंदोलन जारी है। उनका मानना है कि हर व्यक्ति को चाहिए कि आस-पास की भूमि खाली न रहे। पेड़-पौधे लगाए। बंजर भूमि को भी हराभरा रखे। तालाबों, नदी, नालों को भी संरक्षित करे, ताकि भविष्य में जल संकट न हो। वर्तमान को देखकर भविष्य में पानी की उपलब्धता पर अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए अभी से सचेत हो जाएं।
जल-जंगल और जमीन के लिए संघर्ष कर रहे टोंको, रोको, ठोंको क्रांतिकारी मोर्चा के उमेश तिवारी को जेल तक का सफर करना पड़ा। इनका संघर्ष 2009-10 से जारी है। बघवार अंचल के कैमोर पहाड़ को बचाने में महती भूमिका निभाई तो संजय टाइगर रिजर्व में चल रहे विस्थापन का विरोध किया। सोन नदी का अस्तित्व बचाने के लिए बाणसागर से सोन नदी के कोलदह घाट तक करीब 70 किमी. पदयात्रा निकाली।
उमेश तिवारी बताते हैं, जंगल वन्य प्राणियों के लिए तो हैं ही, इनमें नैसर्गिक रूप से आदिवासियों का भी अधिकार है। लेकिन, जंगलों को शासन-प्रशासन द्वारा उद्योगपतियों के हवाले करने का प्रयास किया जा रहा। इसी की लड़ाई मैं लड़ रहा हूं। कैमोर पहाड़ की 500 एकड़ भूमि को बचाने के लिए दिनरात एक किया। सोन नदी को बचाने के लिए कोलदह घाट पर रेत समाधि आंदोलन किया गया था। ग्रामीणों के साथ रेत में लेटना पड़ा ताकि जिले की पवित्र सोन नदी से अवैध रेत एवं पत्थर निकासी पर रोक लगे। आखिरकार प्रशासन को झुकना पड़ा था। जनता को भी अपने हक के लिए अपनी आवाज मुखर करनी चाहिए। यदि आवाज दबी रहेगी तो लोग जीन नहीं देंगे। जल-जंगल और जमीन के लिए आगे भी लड़ाई जारी रहेगी।