बालकृष्ण उरमलिया का मानना है कि, नेता और अभिनेता चुनाव में लोगों से बड़े-बड़े वादे तो करते हैं, लेकिन चुनाव बाद कहीं नजर नहीं आते। लोग भी इन नेताओं व अभिनेताओं की चमक दमक से प्रभावित होकर वोट दे देते हैं। अच्छे व्यक्ति संसद एवं विधानसभाओं में पहुंचने से वंचित रह जाते हैं। जो लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। चुनाव आयोग के सराहनीय कदम से लगने लगा है कि बैनर एवं बिल्ले अब बीते जमाने की चीज बन गई हैं। हालांकि, चुनावी चर्चाएं पहले भी होती थीं और आज भी होती हैं। जिसमें आम जनमानस मसगूल रहता है और अपने नेता के गुण दोष का आंकलन तक करता है।
सौखीलाल तिवारी ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोई चौपाल हो या चौराहा। या फिर विवाह हो या शादी समारोह हर जगह प्रत्याशियों की स्थिति, हार जीत का कारण, किसी प्रत्याशी की हवा पर गहन मंथन होता है। कभी-कभी तो आपसी बहस शोर शराबे का कारण बन जाती है। ज्यादातर लोग चिलम कम पीते हैं और चुनाव के रंग में अधिक रंगे नजर आते हैं। विवाह समारोह में लोग खाना कम खाते हैं और चुनावी चर्चाएं अधिक होती हैं। मानों हार-जीत का गुणा-गणित इन्हीं के पास होता है।