उधर राम ने भी अयोध्या को पाने के लिए चौदह वर्षों की परीक्षा दी थी। क्या क्या न किया! कभी अपहृत पत्नी के वियोग में तड़पते हुए पशु पक्षियों तक से सिया का पता पूछा, तो कभी प्रिय अनुज का घायल शरीर गोद में ले कर रोते रहे। पर वे राम थे, हर परीक्षा में सफल हुए और विजयी हो कर लौटे।
राम वन में बार बार कहते हैं- “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी! लक्ष्मण! यह स्वर्णमयी लंका नहीं रुचती मुझे, मुझे तो बस अपनी अयोध्या चाहिए…” चौदह वर्ष की तपस्या के बाद जब राम को उनकी जन्मभूमि मिली, तो उन्होंने भी अपने हाथों अपने घर को दीपों से सजा दिया और कहा, “मैं सदैव आपका हूँ।”
जितनी विह्वल अयोध्या थी, उतने ही विह्वल राम थे। तभी वह दीपोत्सव अमर हो गया और सभ्यता को “दीपावली” मिली।
कुछ कथाएं बताती हैं, जब माता ने महिषासुर का वध किया तब भी आमजन ने दीवाली मनाई। जब भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और उसकी प्रजा के साथ साथ सोलह हजार बन्दी कन्याओं को मुक्ति दिलाई, तब भी प्रजा ने दीवाली बनाई। यह अन्याय के अंत का उल्लास था, पीड़ा से मुक्ति की खुशी थी।
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यह सहज ही है, अत्याचारियों से मुक्ति पाने पर कौन दीपावली नहीं मनाएगा? मनुष्य जब दुखों के अंधेरे से निकलता है, तो प्रकाश का ही उत्सव मनाता है।
दीपावली व्यक्ति का नहीं, सभ्यता का उत्सव है। परम्परा हमें केवल अपने घरों में ही दीपक जलाने को नहीं कहती, बल्कि हम एक दीपक मन्दिर में भी बार जलाते हैं। कुएं के जगत पर हर घर का दीपक पहुंचता है, तो वह भी जगमगाता है। जब जगमगाता है ग्राम देवता का स्थान, जगमगाते हैं खलिहान, जगमगाता है नदी का घाट तो वस्तुतः हमारी सभ्यता जगमगाती है। जभी कहा, यह व्यक्ति का नहीं सभ्यता का उत्सव है।
सभ्यता जब प्रौढ़ होती है, तभी समझ पाती है कि जो अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाय, वही मार्ग श्रेष्ठ है। सबकुछ पा लेने की हवस समाज को बर्बर बना देती है, पर समाज को कुछ देने का कर्तव्यबोध दीपावली का सृजन करता है। भारतीय परम्परा का हर पर्व सदैव यही कर्तव्यबोध याद दिलाता रहा है।
दीपावली का प्रकाश सबके जीवन में उल्लास का सृजन करें, इसी कामना के साथ…