जहां संसार में आसक्ति बंधन है वहां संसार से अनासक्ति होना मोक्ष है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि संसार असत्य है, संसार अनित्य है, संसार अनात्म है जो इस वास्तविकता को समझ लेते हैं वे संसार से अनासक्ति हो जाते हैं। जो इस सच्चाई को समझ नहीं पाते वे संसार में भोग के लिए आते-जाते रहते हैं। कपिल मुनि कहते हैं कि प्रकृति और पुरूष के संयोग से संसार बना है। जिस दिन पुरुष अर्थात् आत्मा को यह बोध हो जाता है कि बंधन की प्रतीक प्रकृति से मेरा कोई संबंध नहीं है। वह मेरे लिए नहीं है तो उसे संसार से मुक्ति मिल जाती है। ऐसे में संसार को समझें और अध्यात्म के मार्ग पर चलें।
गौतम बुद्ध कहते हैं कि ‘संसारमेव दु:खम्’ अर्थात संसार ही दुख है। यहां किसी को पत्नी से बिछुडऩे का दुख है, पिता के मरने का दुख है, भाइयों द्वारा प्रताडि़त होने, ना जाने क्या-क्या दुख है।
जिसका संसरण होता है वह संसार है अर्थात् जिसका विनाश होता है, वह संसार है। संसार नष्ट होने वाला है। जैसे संसार सत्य नहीं है वैसे ही संसार का जीवन भी सत्य नहीं है। सांसारिक शरीर भी स्थाई नहीं है। संसार में सबकुछ परिवर्तनशील है। जो उत्पन्न होता है, वह मरता है। जो आता है, वह चला जाता है। संसार में कौन ऐसा पुरुष है जो वास्तव में किसी का बंधु है और किसको किससे क्या प्राप्त होता है? सत्य यह है कि जीव अकेला जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। न कोई किसी को रोग से बचा सकता है, न शोक से बचा सकता है, न आपत्तियों से बचा सकता है, न वृद्धावस्था से बचा सकता है और न ही मृत्यु से बचा सकता है। मृत्यु आने पर न पिता बचा सकता है, न पुत्र बचा सकता है और न ही बन्धुबान्धव ही उसे सुरक्षा दे सकते हैं। न संसार की कोई संपदा बचा सकती है और न संसार के कोई सम्बन्ध।
महर्षि कपिल के अनुसार दुख तीन प्रकार के होते हैं, आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। संसार की यात्रा इन तीन प्रकार के दुखों से सक्रान्त रहती है। बुद्ध के चार आर्य सत्यों में प्रथम आर्य सत्य दुख ही है। उनका सम्पूर्ण दर्शन इन चार सत्यों में समाहित है- दुख, दुख समुदय (कारण), दुख निरोध (निवारण) दुख निरोधमार्ग। उन्होंने न केवल संसार के दुख को जाना अपितु उसके कारणों को ढंूढने का प्रयत्न किया। कारण का भाव होने पर उसके निरोध पर बल दिया और निरोध अर्थात् निवारण के लिए अष्टांग मार्ग पर प्रकाश डाला।
संसार के बंधन को समझने के लिए एक कथा को जानना जरूरी है। राजा त्रिशंकु की दुर्गति का कारण सांसारिक शरीर के प्रति आसक्ति ही था। उन्होंने ऋषि विश्वामित्र से सशरीर स्वर्ग जाने की जिद की। वशिष्ठ से प्रतिस्पर्धा में उन्होंने राजा त्रिशंकु को यज्ञ के धुएं से ऊपर भेजने की कोशिश की और इन्द्र ने उन्हें ऊपर आने से रोकने की कोशिश की और राजा त्रिशंकु बीच में लटक गए। न संसार के रहे है और न स्वर्ग ही पहुंच सके। आसक्ति की सजा का यह श्रेष्ठ उदाहरण है तथा संदेश भी है कि संसार बांधने का काम करता है। इसीलिए इसे बंधन का कारण माना गया है।
वर्धमान ने संसार की वास्तविकता को समझा और वे संसार को त्यागकर भगवान महावीर बन गए। राजकुमार सिद्धार्थ को संसार से बांधने का कौन सा उपक्रम उनके पिता तथा शुद्धोदन ने नहीं किया। भोग विलास की सारी सुविधाएं उनके कक्ष में शोभायमान कर दी गयी। किन्तु जो वस्तुएं उन्हें संसार में बांधने के लिए उपयोग में लाई गई वहीं उन्हें संसार छोडऩे का माध्यम बनी। एक रात्रि को कई नर्तकियां जो उन्हें रिझा रही थीं। रिझाते-रिझाते उन्हें नींद आ गई। सोए हुए मुख के असौंदर्य को देख उनके मन में भाव जागा-यहीं संसार का सत्य है। राज्य की यात्रा पर निकले तो वृद्ध को देखा तो बोल पड़े-संसार में एक न एक दिन सबको बूढ़ा होना पड़ता है। रोगी को देखे तो अपना उद्गार व्यक्त किया कि संसार के शरीर का भी यही सत्य है और जब शव यात्रा देखे तो भी बोल पड़े-संसार का अंतिम सत्य यही है। जब तेजोदीप्त संन्यासी को देखा तो कहा कि इसने संसार की वास्तविकता को समझा है और स्वयं एक दिन संन्यासी बन गए तथा साधना के बल पर सिद्धार्थ एक दिन भगवान बुद्ध बन गए। शंकर ने भी संसार की वास्तविकता को समझा और एक दिन ज्ञान के द्वारा आदि शंकराचार्य बन गए।