क्रिया एवं ध्वनि
कर्ता का अस्तित्व पृथ्वी एवं आकाश पर टिका है। वायु-जल-अग्नि इसका पोषण करते हैं। जब कर्ता और क्रिया का एकात्म भाव हो जाता है, तब कर्ता ही क्रिया पर अधिकार कर लेता है। कर्ता की तलाश क्रिया के माध्यम से ही संभव है। क्रिया के अनुरूप ध्वनि पैदा होती है। हर क्रिया की एक ध्वनि होती है। जहां ध्वनि होती है, वहां क्रिया भी रहती है। कत्र्ता-क्रिया-ध्वनि सदा साथ रहते हैं। ‘मैं’ भी इस अहम् शब्द का वाच्य है। कल्पित शब्द नहीं है। सहस्रार से आरम्भ होकर मूलाधार पर्यन्त क्रिया के विस्तार द्वारा ही हमारी वर्णमाला गठित हुई है। इसके आगे बढऩे की क्षमता मानव में नहीं होती। अत: मानव प्रकृति में जितनी ध्वनि संभव हैं, वे सब औ तथा (:) विसर्ग के मध्य ही हैं।
देह स्थित आकर्षण-विकर्षणात्मक क्रिया की मात्रा के भेदगत परिवर्तन से हमारी वर्णमाला का ध्वनि समूह विकसित हुआ है। इस क्रिया के परिवर्तन से ध्वनियों के भेद के साथ-साथ भावों में भी परिवर्तन होता है। जैसे कि क्रिया एवं ध्वनि अभेद हैं, वैसे ही क्रिया एवं भाव भी अभेद रहते हैं। भाव के अनुसार ही क्रिया होती है। मानव जो कुछ ज्ञान से समझता है, वह भी तो क्रिया की ही फल है।
उपासना के लिए सरलतम मार्ग है ‘जप’। ‘जप’, अर्थात् किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण। जप किसी पूर्ण मंत्र का हो सकता है तो किसी बीज मंत्र का भी। किसी विशेष उद्देश्य से हो सकता है तो केवल धर्म के नाम पर भी। कई मंत्र; जैसे—गायत्री, नमस्कार आदि अपने-अपने स्थान पर लोकप्रिय भी हैं। इनमें से बीज-मंत्र गुरु द्वारा प्रदत्त दीक्षा के अन्तर्गत दिया जाता है जो समय के साथ अंकुरित होता हुआ कालान्तर में फल प्रदान करता है।
जप में शब्द का उच्चारण है, शब्द वायु से पैदा होता है। वायु हमारे शरीर का संचालन करता है। सृष्टिï वर्ण के आधार पर बनी है। वर्णमाला वायु के आधार पर टिकी है। हम लोगों का चित्त सर्वदा नाना प्रकार के विकल्पों में फंसा रहता है, तरंगित होता रहता है। ये तरंगें भी वायु की हैं। इसी कारण चित्त में चंचलता बनी रहती है।
जप के स्पंदन
जप में शब्द है। शब्द में अक्षर है। अक्षर में ध्वनि है। ध्वनि में नाद है। वाक् के चार धरातल होते हैं—परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। जो शब्द सुनाई देता है वह हमारी बोलचाल की भाषा वैखरी कहलाती है। जिस भाषा में जीभ नहीं हिलती, होठ भी नहीं हिलते, मुंह से कुछ ध्वनि नहीं होती, अर्थात् केवल मन में शब्द और चित्र बनते हैं वह मध्यमा कही जाती है। जप में जब मंत्र का उच्चारण किया जाता है, तो वह वाचिक जप कहलाता है। जब केवल होठ हिलते हैं, शब्द का उच्चारण नहीं होता तो उसे उपांशु जप कहते हैं। इसके आगे जब मन एकाग्र हो जाता है और ध्वनि या शब्द का स्थूल रूप घट जाता है, तब जप मानसिक हो जाता है।
वाचिक जप में बाहरी वायु का प्रभाव सर्वाधिक होता है। उपांशु में कुछ कम होता है, एकाग्रता कुछ बढ़ जाती है। मानस जप में बाहरी वायु का प्रभाव नहीं रहता, एकाग्रता तीव्र होने लगती है। जप की शुरुआत वाचिक से होती है, किन्तु अभ्यास बढऩे के साथ श्वास-प्रश्वास धीमा होता जाता है और जप स्वयं उपांशु हो जाता है। जब श्वास की गति अत्यन्त मंद हो जाए, ध्वनि समाप्त हो जाए, तो उपांशु जप अपने आप मानस जप में परिवर्तित हो जाता है। वाचिक और उपांशु जप में श्वास-प्रश्वास की क्रिया इड़ा-पिंगला के माध्यम से चलती है।
जैसे-जैसे जप मानस में प्रवेश करता है, श्वास-प्रश्वास सुषुम्ना के जरिए चलने लगता है। वायु मध्यमा में कार्य करती है, अर्थात् मंत्र भीतर ही उच्चरित होता रहता है। बाह्यï जप में जहां ध्वनि उच्चारण के लिए प्रयास करना पड़ता है, वहां मानस के सूक्ष्म धरातल पर उच्चारण की गति स्वत: बनने लगती है। अभ्यास और तीव्र एकाग्रता के प्रभाव से जप सिद्ध होने लगता है और क्रमश: बिना किसी प्रयास के भी जप का स्पन्दन नित्य बना रहता है। इसको हमारे यहां अजपा जप कहते हैं।