scriptsant gyaneshwar jayanti: केवल पंद्रह वर्ष की उम्र में ही आत्मज्ञान पाकर, मात्र 21 वर्ष की आयु में ही संसार से चले गए संत ज्ञानेश्वर | sant gyaneshwar jayanti 24 august 2019 | Patrika News
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sant gyaneshwar jayanti: केवल पंद्रह वर्ष की उम्र में ही आत्मज्ञान पाकर, मात्र 21 वर्ष की आयु में ही संसार से चले गए संत ज्ञानेश्वर

sant gyaneshwar jayanti : 21 वर्ष की आयु में ही संसार को बहुत कुछ ज्ञान और प्रेरणा दे, संसार से चले गए संत ज्ञानेश्वर

Aug 23, 2019 / 06:12 pm

Shyam

sant gyaneshwar jayanti

sant gyaneshwar jayanti : केवल पंद्रह वर्ष की उम्र में ही कृष्णभक्त और योगी बन और मात्र 21 वर्ष की आयु में ही संसार को बहुत कुछ ज्ञान और प्रेरणा दे, संसार से चले गए संत ज्ञानेश्वर

संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान् संतों एवं मराठी कवियों में होती है। संत ज्ञानेश्वर का जन्म 1275 ई. में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था। संत ज्ञानेश्वर की जयंती 24 अगस्त को मनाई जाती है।

योगी और कृष्णभक्त ज्ञानेश्वर

पंद्रह वर्ष की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बड़े भाई निवृत्तिनाथ के कहने पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही भगवद्गीता पर टीका लिख डाली। ‘ज्ञानेश्वरी’ नाम का यह ग्रंथ मराठी भाषा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ दस हजार पद्यों में लिखा गया है। यह भी अद्वैत-वादी रचना है और यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों (छंदों) की इन्होंने ‘हरिपाठ’ नामक एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। मराठी संतों में संत ज्ञानेश्वर प्रमुख माने जाते हैं।

ज्ञानेश्वर की कविता

संत ज्ञानेश्वर की कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘योगवसिष्ठ टीका’ आदि। ज्ञानेश्वर ने उज्जयिनी, प्रयाग, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारका, पंडरपुर आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की। ज्ञानेश्वर ने 1296 में मात्र 21 साल की उम्र में इन्होंने समाधी ले ली थी।

संत ज्ञानेश्वर के बारे में एक प्रसिद्ध कथा है-

एक बार संत ज्ञानेश्वर, नामदेव तथा मुक्ताबाई के साथ तीर्थाटन करते हुए प्रसिद्ध संत गोरा के यहां पधारे। संत समागम हुआ, वार्ता चली। तपस्विनी मुक्ताबाई ने पास रखे एक डंडे को लक्ष्य कर गोरा कुम्हार से पूछा- ‘यह क्या है? गोरा ने उत्तर दिया- “इससे ठोककर अपने घड़ों की परीक्षा करता हूं कि वे पक गए हैं या कच्चे ही रह गए है। मुक्ताबाई हंस पड़ीं और बोलीं- “हम भी तो मिट्टी के ही पात्र हैं। क्या इससे हमारी परीक्षा कर सकते हो? “हां, क्यों नहीं”- कहते हुए गोरा उठे और वहां उपस्थित प्रत्येक महात्मा का मस्तक उस डंडे से ठोकने लगे।

यह बर्तन कच्चा है

उनमें से कुछ ने इसे विनोद माना, कुछ को रहस्य प्रतीत हुआ। किंतु नामदेव को बुरा लगा कि एक कुम्हार उन जैसे संतों की एक डंडे से परीक्षा कर रहा है। उनके चेहरे पर क्रोध की झलक भी दिखाई दी। जब उनकी बारी आई तो गोरा ने उनके मस्तक पर डंडा रखा और बोले- “यह बर्तन कच्चा है। फिर नामदेव से आत्मीय स्वर में बोले- “तपस्वी श्रेष्ठ! आप निश्चय ही संत हैं, किंतु आपके हृदय का अहंकार रूपी सर्प अभी मरा नहीं है, तभी तो मान-अपमान की ओर आपका ध्यान तुरंत चला जाता है। यह सर्प तो तभी मरेगा, जब कोई सद्गुरु आपका मार्गदर्शन करेगा। संत नामदेव को बोध हुआ। स्वयं स्फूर्त ज्ञान में त्रुटि देख उन्होंने संत विठोबा खेचर से दीक्षा ली, जिससे अंत में उनके भीतर का अहंकार मर गया।

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