कोर्पोटेंट (जलकौवा), ऑस्प्रे, पेरेग्रिन, फाल्कन, ब्लू पिजन, स्पैरो (बया), मैना, स्टरलिंक्स पैराफीट (तोता), स्नाइपर, वेडर्स, लिटिल इग्रेट, पॉण्ड हेरोन (ग्रे, व्हाइट, पर्पल), इंडियन जैकना, वॉटर फिजेंट, कूट्स, बॉडहेड कूट, वॉटर फाउल, शावलर्स टील, कॉमन फ्लेमिंगो, विटलिंग टील, शैल ड्रेक, पिंटेल नॉर्दन, पिजन, रेड फ्रस्टेड पोचार्ड, क्रस्टेड ग्रीब, गल्स, रिवर टन्र्स।
– स्पॉटेड ईगल
– ग्रे-सर्कीर (कोयल की एक प्रजाति)
– इंडियन फिंच लाक्र्स
– कोरोमण्डल शेल ईटर
– हेरोन्स
– बारहेडेड गूज (राजहंस)
– ब्लैक बैक्ड गूज
– ब्रामिनी काइट्स
– ग्रे डक
– गडवाल
– व्हाइट आइडक
– इंडियन गोल्डन आई
– सिल्वर लेस्ड स्नैक बर्ड
– पेलिकन
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– 3000 के करीब कॉमन फ्लेमिंगो डेढ़ सौ साल पहले तक यहां मौजूद रहते थे, जो अब बमुश्किल 50 की संख्या में आते हैं
– 300 तक राजहंस हर एक दिशा में दिख जाते थे, जो अब यहां बिल्कुल नजर नहीं आते
– 200 की संख्या तक पेलिकन पक्षी आते थे 2019 से पहले तक, अब दो साल से नहीं आ रहे
ये हैं कारण मार्बल खनन
पिछले करीब 40 साल से राजसमंद झील के उत्तरी-दक्षिणी दिशा में बड़े पैमाने पर मार्बल खनन हो रहा है। शुरुआत में सीमित था, लेकिन पिछले 20 साल से विशालकाय मशीनों से खनन हो रहा है। प्रदूषण, शोर-शराबे से पक्षियों का जीवन प्रभावित हुआ।
झील पेटे में खेती के लिए मानवीय गतिविधियां बढ़ी। खेती के लिए रासायनिकों का इस्तेमाल होने से पक्षियों के लिए खतरा पैदा हुआ। यहां मछली और पक्षियों का अवैध शिकार भी खूब होता रहा है। झील पेटे में कच्ची-पक्की सड़क बनने से लोगों का आवागमन बढ़ा। आसपास आबादी भी बसती चली गई।
झील के आसपास कई मार्बल, पत्थर की प्रोसेसिंग यूनिट्स लगने से वातावरण प्रदूषित हुआ है। मार्बल स्लरी से पानी और हवा खराब हो रही है। झील के ईर्द-गिर्द बड़े पैमाने पर अवैध डम्पिंग भी होती रही है। ईंट निर्माण के लिए पेटा खोदकर मिट्टी भी निकाली जाती है।
पिछले कुछ समय में बबूल के पेड़ोंं की बेतहाशा कटाई से पक्षियों के प्राकृतिक आवास उझडऩे लगे हैं। आबादी क्षेत्र से आता ड्रेनेज-सिवरेज, सिंचाई के लिए झील में लगती अवैध मोटर्स, पम्प आदि से शोर-शराबा बढ़ रहा है।
राजसमंद झील का बिगड़ता पारिस्थितिकीय तंत्र चिंताजनक है। सामूहिक प्रयासों से ही इसे बचाया जा सकेगा। झील रहेगी तो जीवन रहेगा। सभी को अब गम्भीरता से सोचना होगा।
डॉ. हेमलता लौहार, पर्यावरणविद् झील और इसके पारिस्थितिकीय तंत्र को, पक्षियों के प्राकृतिक रहवास को बचाने के लिए वैज्ञानिक ढंग से सोचने की जरुरत है। हमने बचपन में कई ऐसी प्रजातियां देखी, जो अब नई पीढ़ी के लिए दुर्लभ है।
पंकज शर्मा ‘सूफीÓ, पक्षीविद्
नीलेश पालीवाल, पर्यावरणप्रेमी