शहर की एक बड़ी विशेषकर जनजातीय समूहों को दी जाने वाली सुविधाओं की खिलाफत करने वाली आबादी यह मानती है कि आदिवासी नहीं रहेंगे तब भी छत्तीसगढ़… छत्तीसगढ़ बना रहेगा तो शायद यह सोच सही नहीं है। आदिवासियों के बगैर छत्तीसगढ़ की कल्पना ही बेकार है। प्रदेश के अमूमन सभी 27 जिलों में आदिवासी रहते हैं, लेकिन आदिवासियों की सबसे बड़ी मौजूदगी बस्तर, सरगुजा, जशपुर और कवर्धा में ही देखने को मिलती है। देश और दुनिया शोधार्थी जब कभी छत्तीसगढ़ आते हैं, तो उनके मन में सबसे पुराने जीवित इतिहास को देखने की ललक कायम रहती है। आदिवासी हमारे सबसे पुराने पुरखे हैं। इनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है और हम इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। आदिवासी जीवन हमार विकास में सहायक हो सकता है।
आदिवासी जंगल से अपनी जरूरत की उतनी लकड़ी ही बीनकर ले जाना पंसद करते हैं, जो उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरी कर सके। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आदिवासी मानते हैं – पेड़ों में उनके देवी और देवता निवास करते हैं।
शहरी शादियों में कृत्रिम सामानों का तोहफा दिया जाता है, मगर आदिवासी समुदाय कभी महुआ का पेड़ भेंट में देता है, तो कभी सल्फी का पेड़। पशुधन को संरक्षित करने में भी आदिवासियों का नजरिया बेहद अलग होता है। यदि कोई आदिवासी गाय पालता है तो वह गाय के दूध को नहीं दुहता। ऐसा करने के पीछे एक साफ मकसद यह होता है कि जिस दूध पर बछड़े का हक है, उसे क्यों छीना जाए। अगर किसी आदिवासी ने माटी को छूकर कसम ले ली, तो फिर वह कसम या वचन का पालन अवश्य करता है।
छत्तीसगढ़ का आदिवासी जनजीवन बहुत लाजवाब है।
आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के कई प्रयास चल रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में कोई ऐसा जिला नहीं, जहां आदिवासी न रहते हों।
हिंसा से आदिवासियों को बचाना और दूर रखना जरूरी है।
इनके रीति-रिवाज और जीवन कर्म प्रकृति के अनुकूल हैं।