दिलचस्प यह है कि बिहार की राजनीति को लेकर गर्वबोध से भरा रहने वाला समाज भी अपनी धरातली सोच में जातिवादी बोध को अलग नहीं कर पाता। फिर भी बिहार में एक वर्ग ऐसा भी है, जो बिहार के मौजूदा पिछड़ेपन से चिंतित रहता है। जिसे यह बात सालती है कि उसके राज्य के हर गांव की जवान आबादी का बड़ा हिस्सा दुनियाभर में दिहाड़ी मजदूर बनने को मजबूर है। इसी वर्ग की उम्मीद बनकर प्रशांत किशोर उभरे हैं। प्रशांत किशोर से आस लगाए वर्ग को बिहार की दरिद्रता, बिहारी लोगों का राज्य के बाहर मिलने वाला अपमान सालता है। इसलिए वे चाहते हैं कि प्रशांत किशोर उभरें और राज्य की जाति-धर्म वाली राजनीति को बदलें। बिहार की बदहाली को दूर करें। किसी भी नया काम करने वाले को समाज पहले हंसी उड़ाता है, इसके बावजूद अगर वह रुका नहीं तो उसे कुछ उपलब्धियां हासिल होने लगती हैं। इससे समाज के स्थापित प्रभु वर्ग को परेशानी होने लगती है। तो वह उन उपलब्धियों की अनदेखी करने लगता है। फिर भी व्यक्ति रुकता नहीं तो उसकी उपलब्धियों को वही समाज नोटिस लेने लगता है और आखिर में उसे सर आंखों पर बैठा ही लेता है। प्रशांत किशोर इस प्रक्रिया के दो चरणों को तो पार कर चुके हैं। अब उनकी उपलब्धियों का बिहार के राजनीतिक दल नोटिस लेने लगे हैं।
हालांकि उन्हें बार-बार पांडेय बताकर जातिवादी हथियार से उन्हें भेदने की राजनीतिक कोशिश भी हो रही है। दिलचस्प यह है कि उनके ब्राह्मण होने का प्रचार बार-बार आरजेडी की तरफ से हो रहा है। लेकिन, क्या प्रशांत किशोर इस जाति-धर्म की राजनीति से सचमुच दूर हैं? बिहार की राजनीति पिछली सदी के नब्बे के दशक से कमंडल और मंडल खेमे के बीच झूलती रही है। जाति और धर्म की अनदेखी करने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर इससे आगे दलितवाद की ओर बढ़ते दिख रहे हैं।लोहिया और जयप्रकाश मानते थे कि सत्ता में दलों को बदलने की बजाय जरूरी है कि तंत्र में बदलाव लाना।
फिलहाल प्रशांत किशोर तंत्र यानी व्यवस्था में ही बदलाव का दावा कर रहे हैं। इसी वजह से उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ी है। लेकिन, वे ऐसा तभी कर पाएंगे, जब उन्हें बिहार की जनता 2025 के विधानसभा चुनावों में मजबूत समर्थन देगी। प्रशांत किशोर तंत्र तभी बदल पाएंगे, जब उनके पास पारंपरिक राजनेता नहीं होंगे, बल्कि राजनीति का सुचिंतन वाला नया खून उनके पास होगा। फिलहाल, निर्णायक भूमिकाओं में जो दिख रहे हैं, वे पूर्व नौकरशाह हैं।