पश्चिम एशिया में बढ़ती हिंसक अराजकता के दौर में कोई स्पष्ट विजेता नहीं है, और न ही होगा। हमास की सैन्य क्षमता लगभग खत्म-सी हो गई है। हिजबुल्लाह को इजरायल के साथ चार दशकों के संघर्ष में इतना नुकसान पहले कभी नहीं झेलना पड़ा जो उसने अब झेला है। पर हमास और हिजबुल्लाह के शीर्ष नेतृत्व का खात्मा करने के बावजूद इजरायल सामरिक लाभ हासिल करने की स्थिति में नहीं है। उसका उत्तरी क्षेत्र लगभग पूरी तरह से निर्जन है, निर्दोष लोगों की हत्याओं और भारी विनाश के कारण इजरायल की रही-सही अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी धूमिल हुई है। उसकी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से गुजर रही है। पुलिसिंग सहित कानून प्रवर्तन व्यवस्था चरमरा रही है। न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर सवालिया निशान लग रहे हैं क्योंकि एक साल से ज्यादा समय से नेतन्याहू सरकार ने सुप्रीम कोर्ट समेत दर्जनों न्यायिक नियुक्तियां रोक रखी हैं। सबसे अफसोसजनक बात यह है कि इजरायल के पास हमास और हिजबुल्लाह पर हमले जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए इजरायल के पास कोई कूटनीतिक रणनीति भी नहीं है। ईरान में नेतृत्व परिवर्तन की नीति नेतन्याहू के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद हो सकती है पर इससे इजरायल की मौजूदा सुरक्षा चुनौतियों का समाधान नहीं निकलेगा। अंतरराष्ट्रीय अलगाव से बचने के लिए नेतन्याहू अमरीका के भीतर गैर-लोकतांत्रिक राजनीतिक शक्तियों की ज्यादा से ज्यादा मदद ले रहे हैं। वह किसी भी कूटनीतिक पहल से पहले हमास और हिजबुल्लाह को नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं।
एक ओर पश्चिम एशिया की अराजकता को खत्म करने के लिए कूटनीतिक प्रयासों की जरूरत है तो दूसरी ओर नेतन्याहू का गाजा में युद्ध विराम को बार-बार अस्वीकार करना। सभी जानते हैं कि नेतन्याहू का राजनीतिक अस्तित्व युद्ध की स्थिति को निरंतर बनाए रखने पर निर्भर करता है, भले ही यह इजरायली लोगों के लिए तबाही लाने वाली हो। नेतन्याहू को समझना चाहिए कि पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन के दौरान उन्होंने जो फिलिस्तीन-विहीन मानचित्र दिखाया, अरब जगत का कोई भी देश उसका समर्थन नहीं करेगा। ईरान के राजनीतिक नेतृत्व को भी यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि पूरे इलाके में आग लगाकर इजरायल को घेरने की उसकी योजना सफल साबित हो रही है। इजरायल का खुफिया तंत्र ईरान में घुसपैठ बनाने में कामयाब हो चुका है। इजरायली सेना ने हमास को ऐसा झटका दिया है जिससे उबरने में उसे कई साल लग जाएंगे, तो हिजबुल्लाह ने अपने अधिकांश बड़े नेताओं को खो दिया है। जो बचे हैं वे इजरायली हवाई हमलों से भयभीत होकर आपस में संवाद करने से भी कतरा रहे हैं। अब इजरायल पर दुस्साहसी मिसाइल हमले के बाद ईरान को प्रतिशोध भी झेलना होगा।
दरअसल, पश्चिम एशिया में यह समय कूटनीति का होना चाहिए और इसकी शुरुआत गाजा में अविलंब युद्धविराम से होनी चाहिए। तभी इजराइल-लेबनान सीमाओं पर शांति संभव है। इजरायल ने लेबनान में ‘सीमित जमीनी कार्रवाई’ तो शुरू कर दी है, पर ईरान के मिसाइल हमले के बाद यह कार्रवाई कितनी सीमित रह पाएगी, इसका अनुमान लगाना फिलहाल नामुमकिन है। युद्धविराम जरूरी है पर यह एक ओर इस पर निर्भर करता है कि नेतन्याहू कितना सहयोग करेंगे, तो दूसरी ओर इस पर कि अमरीका इजरायल को सूझबूझ से निर्णय लेने के लिए कितना विवश कर पाता है।