हमारे जीवन का आधार मन है। मन है तो इच्छा है। इच्छा है तो गतिविधि है। लक्ष्य है। कार्यकलाप हैं। इच्छाएं मन में पैदा होती हैं। मन हर इच्छा के साथ नया पैदा होता है। इच्छा पूर्ण होते ही मन मर भी जाता है। ‘नवो-नवो भवति जायमानो।’ इच्छा कैसे पैदा होती है, कोई नहीं जानता। इच्छा पैदा भी नहीं की जा सकती। उठी हुई इच्छा को पूरा किया जा सकता है अथवा दबाया जा सकता है। हमारे शास्त्रों में इच्छा को दबाने का निषेध है। उस इच्छा को अन्य भावों में परिवर्तित करने की ही सलाह दी गई है, क्योंकि दबी हुई इच्छा कब किस रूप में फूट पड़े, कहा नहीं जा सकता। इच्छा का मुख्य आधार पूर्व-कर्म होते हैं, जिनको भोगने के लिए जन्म होता है।
मन बड़ा विचित्र है। यह करता कुछ है, रमता कहीं और है। मन को जानना, समझना और नियंत्रण में रखना बड़ा कठिन है। गीता में भी कहा गया है कि ‘चञ्चल हि मन: कृष्ण।’ यह मन बड़ा चंचल है। किसी एक विषय पर टिकता ही नहीं। इसका कारण यह है कि हमारी इन्द्रियां प्रतिपल अलग-अलग विषयों के साथ जुड़ती हैं। मन इन्द्रियों का राजा है। यह इन्द्रियों के साथ जुड़कर विषयों का अनुभव करता है। पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पांचों कर्मेन्द्रियों के साथ जुड़कर यह मन व्यक्ति की हर इच्छा को पूरा करने का प्रयास करता है। मन से ही हमारी कान्ति बनती है। मन ही हमारी भावभूमि है। पूर्ण मनोयोग के बिना हमारा कोई कार्य सफल नहीं हो सकता। मन को एक जगह टिकाना, एकाग्र करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यही बंधन और मुक्ति का हेतु बनता है।
मन को वश में करने के लिए इन्द्रियों पर संयम आवश्यक है। मन इन्द्रियों के लिए ही कार्य करता है। इसकी चंचलता रोकने के लिए इन्द्रियों के विषयों की ओर आकर्षण को रोकना आवश्यक है। कृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार वायु, जल में नाव को गन्तव्य मार्ग से दूर कर देती है। उसी प्रकार विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियां मन को गन्तव्य पथ से विचलित कर देती हैं।
‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि’ (गीता २/६७) प्रश्न उठता है कि यह इन्द्रिय संयम कैसे किया जाए? सामान्यत: यह माना जाता है कि संन्यास लेकर ही मन व इन्द्रियों का संयम संभव है। किन्तु ऐसा नहीं है। व्यक्ति हर आश्रम में ही मन को वश में रखकर जी सकता है। इस बात को अनुगीता के दृष्टान्त से समझा जा सकता है।
‘एक बार व्यास पुत्र शुकदेव ने पिता से संन्यास लेने की आज्ञा मांगी तो व्यास ने उनसे कहा कि गृहस्थ रहकर भी संन्यासी की तरह जिया जा सकता है। शुकदेव को राजा जनक के यहां भेजा, जो कि अपने काल के महान् मनीषी थे। वहां पहुंचे तो देखा, राजा जनक सुन्दरियों के बीच आमोद-प्रमोद कर रहे हैं। शुकदेव ने सोचा कि ये कैसे मनीषी हैं! मैं तो कुछ और ही कल्पना करके आया था। उन्होंने जनक से पूछ ही लिया, ‘आपके जीवन में क्या यह सब बेमेल नहीं है?’ जनक ने कहा ‘पहले भोजन करो, विश्राम करो।’ विश्राम के बाद जनक ने पूछा ‘भोजन कैसा लगा?’ शुकदेव बोले ‘भोजन तो ठीक था, किन्तु सिर पर तलवार लटक रही थी, धागे में बंधी हुई। अधिकतर ध्यान उधर होने से स्वाद नहीं आया। यही हाल विश्राम का भी रहा।’ राजा जनक मुस्कुरा दिए। ‘तुम्हारी बात का यही उत्तर है। मैं भी अपने सिर पर यमराज की तलवार को सदा देखता रहता हूं। अत: मुझे किसी अन्य वस्तु में रुचि या स्वाद का अनुभव नहीं होता।’
इन्द्रियां और मन अपने प्राकृतिक स्वरूप में स्वच्छ ही होते हैं। किन्तु राग-द्वेष के कारण चंचलता का भाव मन में पैदा होता है। उसकी कारक हमारी वृत्तियां होती हैं। साधना का लक्ष्य है-राग-द्वेष की लहरें न उठें और मन की चंचलता का नियंत्रण हो सके। जहां प्रवृत्ति है वहां स्मृति भी है, कल्पना भी है। ये चंचलता बनाए रखती हैं। मन के कार्य हैं-संकलन, विकलन और कामना। इन्हीं से जुड़ती है प्रवृत्ति, स्मृति और कल्पना।
जब तक मन किसी विषय को उठाए रहता है, तब तक लिप्त हुआ सा लगता है। किन्तु जब उस विषय को छोड़ता है, तो बेलाग होकर निकल जाता है और दूसरे विषय के रूप में आ जाता है। लाल रंग का ख्याल करके लाल हो जाता है। किन्तु तत्काल सफेद का विचार होते ही श्वेत हो जाता है।
मन न छोटा है, न बड़ा है। केवल छोटी-बड़ी वस्तु को ग्रहण करके छोटा-बड़ा प्रतीत होता है। जिस वस्तु के साथ उसका योग किया जाता है, उसी वस्तु के परिणाम और रंग-रूप ले लेता है। मन का स्वरूप अनन्त है-‘अनन्तं वै मन:।’ अत: मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उत्थान का मार्ग है। मन का विषय तो शान्ति है। बुद्धि और इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुआ मन अशान्त रहता है। इन्द्रिय सुख व्यक्ति को बाहरी विषयों में इतना लिप्त रखता है कि मन की आवाज सुन पाना उसके लिए लगभग असंभव होता है। इन्द्रियों के अनुभव ही मन पर अंकित रहते हैं और उन्हीं की कल्पना में मन लगा रहता है।
मन में एक साथ अनेक विषयों का चलते रहना ही अशान्ति का कारण है। हम जो कुछ भी करते हैं तो हमें लगता है कि ‘अपनी मर्जी’ से कर रहे हैं। वस्तुत: हमारे जन्म के साथ ही पूरे जीवन की कुण्डली तैयार रहती है। हमें उसी के अनुसार जीना होता है। हम कभी उसको स्वीकार कर लेते हैं, कभी उसका विरोध करने लगते हैं। इसी क्रम में जीने का नाम ही ‘हमारी मर्जी’ पड़ गया। जीवन के मूल में हमारी इच्छा है। इसकी पूर्ति के लिए हम जीते हैं, जिन्दगी के सारे पापड़ बेलते हैं। इच्छा मेरे मन की है, मन में उठती है। दिखाई न मन देता है, न ही इच्छा। फिर भी लगता है कि यह ‘मेरी’ इच्छा है। वे इच्छाएं ही जीवन वृक्ष के पोषण की दिशा तय करती हैं। इच्छा का धरातल मन है। यह मन चार प्रकार का होता है-श्वोवसीयस् मन, इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन, महन्मन।
श्वोवसीयस् को ही मूल मन, अव्यय मन कहते हैं। यही अव्यय मन कृष्ण का पर्याय है। सृष्टि में एक ही मन है। वही अनन्त रूपों में प्रतिबिम्बित होता है। ब्रह्म का पहला सत्य रूप यह अव्यय मन ही है। इस मन में किसी प्रकार की कोई भी क्रिया नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि का यही आलम्बन है। महन्मन, सर्वेन्द्रिय मन और इन्द्रिय मन इसी के प्रतिबिम्ब हैं।
‘नियतविषयत्त्वमिन्द्रियम्’-अर्थात् इन्द्रियों के विषय नियत होते हैं। इनसे जुडऩे वाला मन ‘इन्द्रिय मन’ है। यह इन्द्रिय मन प्रत्येक इन्द्रिय के नियत कर्म करने में सहायक होता है। किन्तु सुख-दु:ख रूप अनुकूल-प्रतिकूल व्यापार सभी इन्द्रियों में समान हैं। यह सुख-दु:ख का अनुभव जहां होता है, वह सर्वेन्द्रिय मन कहलाता है। लोकभाषा में इसे ‘ऊपर का मन’ कहा जाता है। सोते समय इस मन के कार्य रुक जाते हैं। तब भी ‘अहं’ यह ज्ञान व्यक्ति विशेष को बना रहता है। इसका कारण महन्मन या सत्व मन है। महन्मन के कारण श्वास-प्रश्वास, रक्त संचार आदि आन्तरिक कार्य बने रहते हैं। सर्वेन्द्रिय मन की इच्छा जीव की स्वयं की इच्छा है। महन्मन की इच्छा को ईश्वर की इच्छा कहते हैं। महन्मन ही भीतर का मन कहा जाता है। गीता में इन दोनों के लिए ही मन्मना-उन्मना शब्द प्रयोग किए गए हैं। इसी महन्मन में अव्यय मन प्रतिष्ठित रहता है। मन में इच्छा उठने पर इन्द्रियों तथा बुद्धि के माध्यम से हम कर्म करते हैं। उन कर्मों का फल ईश्वर के अधीन रहता है। यही धारणा हमारे इन्द्रिय मन को अव्यय मन से जोड़ देती है।