पुराणों में महाकाल के उज्जयिनी में विराजने की कई कथाएं हैं, जिनमें से एक यह भी है कि त्रिपुरासुर के वध के बाद भगवान शंकर पहली बार पृथ्वी पर आए और यहां विराजमान हो गए। त्रिपुर नाम का असुर तीनों लोकों में अपने अत्याचार के कारण ‘काल’ की तरह पहचाना जाता था और काल रूपी असुर का वध करने के कारण शंकर महाकाल कहलाए। चूंकि कालजयी शंकर यहां स्थापित हुए, अत: इसका प्राचीन नाम अवन्तिका पड़ा, जिसका अर्थ है अन्त से रहित। पुराणों के अनुसार महाकाल का विस्तार तीनों लोकों में है- आकाश में तारक, पाताल में हाटकेश्वर और मृत्यु लोक में महाकालेश्वर। संभवत: इसी कारण महाकालेश्वर मंदिर तीन खण्डों में विभक्त है। सबमें ऊपर नागचन्द्रेश्वर, मध्य में ओंकारेश्वर और नीचे महाकालेश्वर विराजे हैं। प्रात: चार बजे की भस्म आरती अत्यंत महत्त्वपूर्ण और तांत्रिकों के लिए विशेष अर्थपूर्ण होती है।
महाकाल उज्जयिनी (उत्कर्ष के साथ विजय प्राप्त करने वाली भूमि) के अधिपति माने जाते हैं। मेघदूत में कालिदास ने भगवान महाकाल की सांध्य आरती का बड़ा मनोहारी वर्णन किया है। सूर्यास्त पर जब भूतभावन भगवान की आरती प्रारंभ होती थी, तब नगाड़े बजने और दीप झिलमिलाने लगते थे। शिव नृत्य और संगीत के आदि देव भी माने गए हैं। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में शिव की 108 नृत्य मुद्राओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें परिसर में उकेरने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है। इन्हीं मुद्राओं के माध्यम से वे ऋषि-मुनियों तथा देवताओं की जिज्ञासा शांत करते थे। कहते हैं पाणिनी ने संस्कृत व्याकरण की रचना शिव के डमरू की 14 प्रकार की ध्वनियों से प्रेरित होकर की थी, जो 14 माहेश्वर सूत्र कहलाए और आज तक अपरिवर्तनीय हैं। स्कन्द पुराण में उज्जयिनी के अधिपति महाकाल को कालचक्र प्रवर्तक, वामन पुराण में नाभिदेव और योगशास्त्र में उज्जयिनी को मणिपुर चक्र कहा गया है। कुछ विद्वानों का यह अनुमान भी है कि उज्जयिनी की केन्द्रीय भौगोलिक स्थिति के कारण यहां महाकाल को विराजमान माना गया और ज्योतिर्लिंग को शंकु स्थान मान कर काल गणना का क्रम प्रारंभ किया गया होगा। पृथ्वी की प्रथम वेधशाला और पंचांग उज्जैन में वराहमिहिर के काल में ही बने थे। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भरोत्पल, ब्रह्मगुप्त, मुंजाल आदि से होती हुई ज्योतिर्विज्ञान की परम्परा श्रीपति, भोजदेव, लाभचार्य, भास्कराचार्य आदि तक फलती-फूलती रही। भूमध्य रेखा और कर्क रेखा का मिलन उज्जयिनी के आकाश में होता है, इसी कारण इस नगर को ज्योतिर्विज्ञान में काल निर्णय के लिए उपयुक्त माना गया। निश्चय ही ‘महाकाल लोक’ भारत के सांस्कृतिक पुनरोत्थान की काल गणना में एक प्रमुख ज्योति केन्द्र के रूप में माना जाएगा।
महाकवि परिमल ने उज्जयिनी को ‘पृथ्वी पर रत्न के समान’, कालिदास ने ‘स्वर्ग का चमकता खण्ड’ और बाणभट्ट ने ‘जम्बूदीप का तिलक’ कहा था। आध्यात्मिक दृष्टि से अग्निपुराण में उज्जयिनी को पापनाशिनी तथा भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी कहा गया तो गरुड़ पुराण के अनुसार पृथ्वी की मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में उज्जयिनी को श्रेष्ठ माना गया। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट से शिप्रा में छलके अमृत के कारण हरिद्वार, प्रयाग और नासिक के साथ यहां भी कुंभ पर्व होता है। सिंह राशि में गुरु के आने पर होने वाले यहां के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है। गीता का महान ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण ने यहीं सान्दीपनी आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी।
ऐसी दिव्य नगरी में महाकाल के भव्य परिसर का निर्माण कर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने महाकाल को साष्टांग प्रणाम किया, अपने जीवन को धन्य और अपनी स्थिति को सार्थक किया है। कुछ लोग प्रश्न उठा सकते हैं कि जहां दिव्यता है, वहां भव्यता की क्या आवश्यकता। वे नहीं जानते कि दिव्यता का भौतिक प्रगटीकरण ही भव्यता बन जाता है। मूर्त को पूज कर ही लोग अमूर्त तक पहुंच जाते हैं और साधारणजन भव्यता से प्रभावित होकर दिव्यता से अभिभूत होने के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इस धार्मिक अनुष्ठान के कई व्यावहारिक पहलू भी हैं। प्रमुख है, विश्वभर से आने वाले महाकाल के भक्तों को सुगमता से दर्शन सुलभ हो सकें। भक्तों की सेवा भी भगवान की सेवा ही कही जाती है। सुविधा और साधन भक्तों की संख्या में वृद्धि और कई लोगों को रोजगार प्रदान करेंगे। कई की आर्थिक स्थिति सुधरेगी और दरिद्र पर नारायण की कृपा बरसेगी।