यह आम विचार है कि हर कोई पढ़ा सकता है। इस वर्ष की शुरुआत में, बिहार सरकार ने तय किया कि वह रिटायर्ड पुलिस कर्मियों की सेवाएं शिक्षक के रूप में लेगी। मुझे यकीन है कि वे बच्चों में कड़े अनुशासन लाएंगे। कई लोग मानते हैं कि हमारे स्कूलों में इसी का अभाव है और वे शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराते हैं। कई अन्य का मानना है कि शिक्षक काम नहीं करना चाहते, इसलिए वे उतने वेतन के हकदार नहीं हैं जितना उन्हें मिलता है। ऐसे विचारों ने कम-वेतन नीति की अवधारणा को लोकप्रिय समर्थन मिलने में भूमिका निभाई जिसका ज्यादातर निजी स्कूल पालन करते हैं। एक विचार यह भी है कि शिक्षक सुधारों की दिशा में बाधा बनते हैं। ऐसे में बदलाव लाने का एकमात्र तरीका है- बलपूर्वक उनका अनुकूलन किया जाए।
सरकारी और निजी स्कूल के शिक्षकों के बीच तुलना हमेशा सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को खराब रोशनी में दिखाती है, जिससे अभिभावकों के निजी स्कूलों को प्राथमिकता देने का एक आसान स्वीकार्य कारण मिल जाता है। शिकायतों में यह आरोप भी शामिल है कि शिक्षक राजनीति में लिप्त हैं। हाल के दशकों में कई राज्य सरकारों ने शिक्षक यूनियनों को खत्म करने का रास्ता अपनाया है।
स्कूल शिक्षकों पर नई परिस्थितियों के अनुरूप ढलने का दबाव लम्बे समय से रहा है। अब यह दबाव कॉलेज और यूनिवर्सिटी शिक्षकों पर भी आ गया है। सीसीटीवी और सबूत के लिए वेबसाइट पर नियमित रूप से डेटा लोड करने के दबाव से स्कूली शिक्षकों ने अपनी वह स्वायत्तता भी खो दी है जो डिजिटल जीवन में आने से पहले उन्हें थोड़ी-बहुत मिली हुई थी। ऐसी परिस्थितियों ने शिक्षक के प्रति अविश्वास को तेजी से बढ़ाया है। मुझे इस नव-प्रवर्तन से उत्पन्न एक घटना का बखूबी स्मरण है जब सूरत में एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझसे कहा था-‘मैं अपनी कुर्सी से उठे बिना ही आपको यह बता सकता हूं कि कौन-सी कक्षा में क्या चल रहा है।’ यह घटना इस सदी की शुरुआत की है और उस स्कूल में सीसीटीवी कवरेज पहले से ही व्यापकता से लगे थे। कोई भी अध्यापक या बच्चा कैमरे की आंख से ओझल नहीं था। यह प्रभावशाली उपलब्धियों का रोमांचक अनुभव था। दिल्ली में सरकार को उस समय लोकप्रिय स्वीकार्यता मिली जब उसने अभिभावकों को सीसीटीवी निगरानी की सुविधा देने की पेशकश की।
बीते वर्षों में, सरकारों ने मान लिया है कि वे जानती हैं शिक्षकों से कैसे निबटा जाए। अब एक नई चुनौती आ खड़ी हुई है और किसी भी राज्य शिक्षा निदेशालय को नहीं मालूम कि क्या किया जाए। कोचिंग इंडस्ट्री ने शिक्षा जगत के पंडितों को चकित कर दिया है। कोचिंग ने सरकारी और निजी स्कूलों दोनों पर कब्जा कर लिया है। परम्परागत रूप से, सेकंडरी स्तर के शिक्षक बोर्ड परीक्षाओं में बच्चों की तैयारी कराने के लिए जवाबदेह थे। वह अब भी यह काम कर रहे हैं पर कोच ने यह काम उनसे छीन लिया है। अपने कर्मचारियों को ‘शिक्षक’ कहकर कोचिंग इंडस्ट्री ने पूरी तरह से उस ढांचे को बदल दिया है जो अध्यापन और परीक्षाओं के प्रारूप को परिभाषित करता था। ‘मल्टीपल च्वॉइस क्वेश्चन्स’ (एमसीक्यू) अब ज्ञान की प्रमुख मुद्रा है। यह क्लास टीचर को एक ही विकल्प देती है: पुष्टि करने का विकल्प। कोचिंग और अध्यापन में अंतर कभी अपनी प्रासंगिकता लिए थे, पर आज बाजार ने उन्हें नजदीक ला दिया है। कोच का एक सीमित उद्देश्य होता है और किशोर के जीवन में सीमित भूमिका होती है। दूसरी ओर, एक अध्यापक को किशोर के सभी मुद्दों पर ध्यान देने के अलावा अकादमिक मांगों को भी संबोधित करना होता है।
प्राइमरी और प्री-प्राइमरी कक्षाओं के शिक्षक तो और भी बड़ी निर्णायक भूमिका का निर्वहन करते हैं पर उन्हें कदाचित ही याद किया जाता है। सिस्टम के भीतर भी, विशेषकर प्रशासकों द्वारा उन्हें तरजीह नहीं दी जाती है। प्राथमिक शिक्षक का हमारे समाज में कोई स्टेटस नहीं है और प्रारंभिक बचपन में पढ़ाने वाले शिक्षक का तो बहुत ही कम। प्राइमरी शिक्षिकाएं बच्चे को समाज के बारे में बताती हैं, बच्चे की रुचियों और बौद्धिक ऊर्जा को आकार देने के साथ ही संवेदनशील भूमिका निभाती हैं। हमारे सिस्टम में इन शब्दों का बहुत थोड़ा ही अर्थ है। परंपरा और नियम संरचना दोनों ही इस मानदंड को बरकरार रखने वाले बन गए हैं कि आप जितने छोटे बच्चे को पढ़ाएंगे, आपका स्टेटस और वेतन उतना ही कम होगा।
सभी शिक्षक उच्चतर शिक्षा प्रणाली से ही तैयार होते हैं। ‘छात्र-केंद्रित’ सुधारों में शिक्षकों को भुला दिया जा रहा है। पिछले कुछ सत्रों में, स्थापित परम्पराओं में काफी बदलाव हुए हैं- जैसे सेमेस्टर सिस्टम, चार-वर्षीय अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम, एमसीक्यू-आधारित परीक्षा के जरिए केंद्रीकृत प्रवेश आदि। शिक्षक इन बड़े बदलावों के प्रति आलोचनात्मक और संशयी रहे हैं। उनकी वरिष्ठ और सेवानिवृत्त होने वाली पीढ़ी निराश है। रिक्त पद भरना कठिन समस्या है क्योंकि लंबित पद बहुत अधिक हैं। कई वर्षों से, तदर्थ शिक्षकों ने व्यवस्था संभाली हुई है। करियर से समझौते के कारण, वे बहुत दुखी हैं। बढ़ते कार्यभार व बढ़ते छात्र-शिक्षक अनुपात ने पेशेवर विकास के लिए उनकी क्षमताओं को खत्म ही किया है।
शिक्षकों का जॉब जूनियर डॉक्टरों के जितना ही महत्त्वपूर्ण है पर यूनिवर्सिटी-कॉलेजों में कोई इमरजेंसी वार्ड नहीं है। पूर्वाग्रहग्रस्त जनधारणा से पीडि़त शिक्षक, शिक्षक दिवस पर शिक्षकों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली अलंकारिक भाषा के आदी हो गए हैं। शिक्षकों की रोजमर्रा की भागदौड़ और अपमान को नजरअंदाज करना मुश्किल है। कोई भी देश शिक्षकों की अप्रसन्नता से होने वाले नुकसान की भारी कीमत चुकाने से बच नहीं सकता। उनका असंतोष, कितना भी शब्दरहित हो, देश के मानव संसाधन पर भारी असर डालता है और यह लागत हर साल कई गुना बढ़ती जाती है।
(मूल लेख अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है।)