कोरोना काल में गुजरात के अस्पतालों में आग से कई मरीजों की मौत के मामलों को लेकर 2021 में सुप्रीम कोर्ट की फटकार का भी कोई असर नहीं हुआ। शीर्ष कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की थी कि अस्पताल सिर्फ कमाई का केंद्र बन गए हैं, वहां मरीजों की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता। झांसी के अस्पताल में भी शिशुओं की जान की कीमत पर सुरक्षा की अनदेखी की गई। जिन शिशुओं की जान गई, वे या तो समय से पहले जन्मे थे या कमजोर थे। उन्हें ‘इनक्यूबेटर’ में रखा गया था। गंभीर वयस्क मरीजों के लिए आइसीयू की तरह नवजात शिशुओं के लिए एनआइसीयू में भी ज्यादातर संवेदनशील मशीनें बिजली से चलती हैं। इससे वायरिंग पर विद्युत-भार बढऩे से शॉर्ट सर्किट का खतरा रहता है। शॉर्ट सर्किट को ही झांसी के अस्पताल में आग लगने की वजह बताया जा रहा है। अतीत के ऐसे हादसों को लेकर सिफारिश की गई थी कि अस्पतालों में बिजली की वायरिंग की नियमित जांच होनी चाहिए। सिफारिश पर ज्यादातर अस्पतालों में अमल नहीं हो रहा है। नवजात शिशुओं की गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत नेशनल नियोनेटोलॉजी फोरम (एनएनएफ) की उस टूलकिट पर भी अस्पतालों ने ध्यान नहीं दिया, जिसमें नवजातों की देखभाल के लिए मानक निर्धारित किए गए हैं। यह टूलकिट यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से तैयार की गई थी। एनएनएफ के मुताबिक वयस्कों के आइसीयू 8-10 बेड वाले होते हैं, लेकिन नवजातों के एनआइसीयू में बेड की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। वहां कई बार 50 बेड तक लगा दिए जाते हैं। इसी अनुपात में मशीनें चलती हैं। बिजली की वायरिंग पर क्षमता से ज्यादा विद्युत-भार पडऩे पर हादसे का खतरा बढ़ जाता है।
अस्पतालों में सुरक्षा उपायों के लिए कड़ी नीतियों की दरकार है। उन जिम्मेदार लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, जो इन उपायों की अनदेखी करते हैं। निर्दोष मरीजों की जान से खिलवाड़ पर अंकुश बेहद जरूरी है।