भुवनेश जैन
गूगल बाबा जयपुर में फेल हो गए! दुनियाभर के शहरों में गूगल मैप ने सड़कों पर चलने वाले वाहनों की राह आसान बना दी है। सही रास्ता कौन सा है, कहां ट्रैफिक जाम मिलेगा, मंजिल तक पहुंचने में कितनी देर लगेगी-एक बटन दबाते ही सब कुछ सामने। पर जयपुर की यातायात व्यवस्था ने गूगल को भी गच्चा दे दिया है। गूगल मैप जिस रास्ते को सुगम बताता है, उसी पर अचानक ट्रैफिक पुलिस प्रकट होती है। उसके हाथों में एक नायाब हथियार होता है-रस्सी। पलक झपकते ही रस्सी तन जाती है और फिर घंटों तक ट्रैफिक जाम। सैकड़ों वाहन, हजारों लोग जाम में फंस जाते हैं। किसी की ट्रेन छूट जाती है, किसी की परीक्षा। कोई अस्पताल नहीं पहुंच पाता तो कोई काम पर।
पिछले छह माह से तो अस्त-व्यस्त ट्रैफिक व्यवस्था ने जयपुरवासियों का जीना दुश्वार कर रखा है। कभी वी.आई.पी. मूवमेंट, कभी जुलूस, कभी प्रदर्शन तो कभी-कभी मात्र रिहर्सल के लिए ट्रैफिक पुलिस जयपुर के लाखों लोगों के लिए नारकीय अनुभव का पैगाम ला रही है। स्कूली वाहनों में बच्चे भूख-प्यास से बिलखते रहते हैं। एम्बुलेंस तक फंस जाती हैं। आम आदमी की हैसियत तो कीड़े-मकोड़ों जैसी हो गई है। एक रस्सी शहर के जनजीवन को चौपट कर देती है।
हो सकता है, जनसंख्या और वाहन घनत्व बढ़ने से दुनिया के कुछ दूसरे शहरों में भी ऐसे ही हालात हों। पर नाकामी छुपाने के लिए ऐसे बहानों की खोज नाकाम लोग ही करते हैं। श्रेष्ठ वही हैं, जो मुश्किलों में भी रास्ता निकाल लेते हैं।
जयपुर दुनिया के उन गिने-चुने शहरों में रहा है, जहां की यातायात व्यवस्था हमेशा बेहतरीन रही है। सीट बेल्ट लगाना हो या फिर हेलमेट, यहां के नागरिक आम तौर से यातायात नियमों की पालना करने में अग्रणी रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से सारी व्यवस्थाएं चरमरा उठी हैं और पूरा शहर हाहाकार कर उठा है।
कुछ अफसर दबी जबान में कहते हैं-क्या करें प्रधानमंत्री और अन्य महत्वपूर्ण लोगों का जयपुर में आना बढ़ गया। यहां बड़े-बडे़ आयोजन होने लग गए। तो क्या शहर की ट्रैफिक अव्यवस्था का ठीकरा प्रधानमंत्री के सिर फोड़ दिया जाए। वस्तुत: इस दुर्व्यवस्था के लिए ट्रैफिक पुलिस ही नहीं, जिला प्रशासन, जयपुर विकास प्राधिकरण, नगर निगम, आवासन मंडल, स्थानीय राजनेता, यातायात विभाग सहित दर्जनों एजेंसियां बराबर की जिम्मेदार हैं जो दैत्याकार होती इस समस्या को लेकर मिलकर योजनाबद्ध तरीके से काम नहीं करती। सब अपनी ढपली, अपना राग बजाने में लगे हैं। फौरी हल निकाले जाते हैं तो शहर तड़प उठता है।
तेजी से बढ़ते जयपुर शहर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग बढ़ाने के लिए आज तक कोई अच्छी योजना नहीं बनाई गई। कौन से मार्गों पर कितनी सिटी बसें होनी चाहिएं, मेट्रो का फेज-दो तुरंत शुरू होना चाहिए, आस-पास के कस्बों से प्रतिदिन शहर आने वालों के लिए क्या साधन हों, निजी वाहनों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय हों, परकोटे जैसे भीड़ भरे इलाके में पार्किंग समस्या का समाधान क्या हो, सड़कों पर बढ़ते अतिक्रमणों को कैसे रोका जाए, अनियंत्रित तरीके से बढ़ रहे ई-रिक्शाओं को कैसे नियंत्रित किया जाए, वी.आई.पी. मूवमेंट के समय कैसे एडवांस प्लानिंग हो, यातायात गतिरोध को कम से कम स्थान तक सीमित रखा जाए, डाइवर्जन प्लान कैसा हो।
दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता
इन सब मुद्दों का हल केवल ट्रैफिक पुलिस के बूते में नहीं है। जब तक विभिन्न विभाग मिलकर काम नहीं करेंगे, कुछ नहीं होगा।
आज जवाहर नगर और झालाना बाईपास की आधी सड़कों पर अतिक्रमणकारियों का कब्जा है। उन्हें हटाएंगे तो स्थानीय जनप्रतिनिधि विरोध का झंडा उठा लेंगे। ई-रिक्शाओं को नियंत्रित करने की बात आएगी, तो परकोटे के कुछ जनप्रतिनिधि बिलबिला उठेंगे। ऐसे में शीर्ष स्तर पर दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। कुछ निर्णय और भी बड़े स्तर पर होने हैं। सैन्य क्षेत्र, विश्वविद्यालय, मुख्य बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन, मंडियां अब शहर के बीचों-बीच आ चुके हैं। या तो उन्हें शिफ्ट किया जाए या उनके कब्जे वाली बड़ी-बड़ी जमीनों में से यातायात के लिए रास्ता दिया जाए।
यातायात नियंत्रण में टेक्नोलॉजी का महत्व बढ़ता जा रहा है। हमारे यहां नई टेक्नोलॉजी लाने की उत्सुकता तो रहती है, पर उसके प्रशिक्षण और रख-रखाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। ट्रैफिक लाइट आज भी दशकों पुरानी तकनीकी पर चल रही है। चाहे ट्रैफिक शून्य हो, फिर भी लाल बत्ती तो जलेगी ही। इन्टेलिजेंट ट्रैफिक लाइट सिस्टम, रीयल टाइम ट्रैफिक सिग्नलिंग, स्मार्ट पार्किंग सिस्टम, ट्रैफिक एप वाहनों का क्रॉस डोमेन कनेक्शन जैसी टेक्नोलॉजी अभी दूर की कौड़ी है। अभी तो चौराहों पर लगे सीसीटीवी भी केवल डराने के लिए हैं। एक-दो सड़कों को छोड़कर कहीं ऑटो चालान की व्यवस्था नहीं है। जेडीए में भेंट-पूजा देकर बड़े-बड़े मॉल अपर्याप्त पार्किंग व्यवस्था के बावजूद बन जाते हैं। मार्गों की सर्विस लेन अतिक्रमणों की शिकार हैं।
प्रधानमंत्री या दूसरे महत्वपूर्ण लोग हमारे शहर में आएं, यहां बड़े-बड़े आयोजन हों तो शहर का गौरव ही बढे़गा। लेकिन इनके बहाने अपनी विफलता पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। न राजनेताओं को और न अफसरों को। रस्सी-डंडों के सहारे तात्कालिक हल निकालने से शहर की जनता के कष्ट ही बढ़ेंगे। सही नियोजन, दूरदर्शितापूर्ण योजनाएं, टेक्नोलॉजी का उपयोग और राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही रास्ते सुगम बनेंगे।
Hindi News / Prime / Opinion / पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख: हाहाकार करती सड़कें