scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: वामन ही बनता विराट् | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article 10th August 2024 Sharir Hi Brahmand | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: वामन ही बनता विराट्

हर प्राणी अर्द्धनारीश्वर है। दक्षिण भाग शिव तथा वाम भाग शक्ति है। वृषा और योषा है। भोग योनियों में प्राणी कुछ अलग से प्रयास नहीं कर सकता। मनुष्य योनि में अपने स्वरूप को समझ सकता है। अपने कामना के स्वरूप का विकास कर सकता/सकती है।

जयपुरAug 10, 2024 / 12:49 pm

Gulab Kothari

‘‘अग्निषोमात्मकं जगत्’’ में सोम को जीवनीय रस कहा जाता है। अग्नि का धर्म विश्कलन है। इसके खण्डित स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का कार्य सोम करता है। सूर्य को जगत का पिता कहा जाता है—सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। सूर्य की प्रतिष्ठा का आधार पारमेष्ठ्य सोम है जो निरन्तर सूर्य में आहूत होता है। साथ ही चान्द्र सोम भी इस कार्य में निरन्तर सहयोग करता है। सोम ही पोषक, स्वरूप निर्मापक तथा स्वरूप रक्षक है। नित्य आहूत होता हुआ सोम नित्य निर्माण करता रहता है।
आहुति द्रव्य से जो निर्माण होता है, उसके संबंध में तीन नियम हैं- पहला है वृद्धि- भूत और प्राण के संयोग से वृद्धि होती है। वृद्धि का अर्थ है छोटे से बड़ा होना- वामन से विराट् होना। जो वामन है, वही विराट् बनता है। वामनो हि विष्णुरास (शत. 1.2.5.5)। जो वामन था- वह वस्तुत: विष्णु ही था। वामन ही विराट् भाव में महिमा भाव रूप विष्णु होता है। गर्भ में स्थित भ्रूण वामन है। वही क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होता हुआ विष्णु बनता है। शरीर बन जाता है। वामन से विष्णु का रूप गति के कारण प्राप्त होता है, जो देश-काल में प्रकट होती है। तीन लोक-तीन काल ही विष्णु के तीन पाद हैं। ऋग्वेद में वामन को युवाकुमार तथा विष्णु को वृहद् शरीर कहा गया है।
जीवन का दूसरा लक्षण है- अन्न ग्रहण। जहां भूत में प्राण की सत्ता है, वहां अन्न और अन्नादरूप यज्ञ होता है। प्राण/अग्नि अन्नाद है, इसे जीवित रहने के लिए सोम-अन्न चाहिए। अग्नि बाहर से आए अन्न को ग्रहण करता है। उसे अपनी शक्ति से पचाकर अपने लिए बल पैदा करता है। स्थूल अन्न से सूक्ष्म शक्ति का निर्माण शरीर के अनेक अंगों के रासायनिक क्रमों से होता है। चींटी-हाथी वृक्ष आदि भी अन्न-जल से ही जीवित रहते हैं। गर्भ में सारा अन्न मां से प्राप्त होता है। अन्न खाना और शक्ति उत्पन्न करना ही प्रकृति का यज्ञ है, शरीर का धर्म है। जैसे ही अन्न का पाचन होता है, पुन: वैश्वानर अग्नि अन्न मांगता है।
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जीवन का तीसरा लक्षण है—प्रजनन। घृत को रेतस् कहते हैं। रेत: कृत् वाज्यं देवा: पुरुषमाविशन्। (अथर्व 11.8.29)। शुक्र या रेतस् के माध्यम से पार्थिव शक्तियां तथा देव शरीर में प्रविष्ट होते हैं। रेत-आज्य-शुक्र पर्याय हैं। जिस शुक्र तत्त्व से विश्व का जन्म होता है वह ‘भुवनस्यरेत:’ कहलाता है। इसी से विश्व का भी एवं प्राणियों का भी जन्म होता है। रेत ही प्रजनन का प्रतीक है। जहां बीज से जीवन उत्पन्न होता है, स्वयं परिपक्व होने पर उसी प्रकार के बीज का निर्माण करता है। यही जीवन का चक्र है। पिता-माता के युग्म से ही सन्तान होती है। अर्द्धनारीश्वर सृष्टि रचना के लिए अपने वामांग से मातृ रूप भी धारण किए हुए है। प्रकृति ने सन्तान पैदा करने के लिए दो योनियों—स्त्री और पुरुष का निर्माण किया है। दोनों मिलकर एक योनिता हैं। अग्नि-सोम को एक योनि कहा है क्योंकि अग्नि ही सोम बनता है तथा सोम ही अग्नि बनता है। मूल रूप में तत्त्व एक ही है। अग्नि व सोम की सम्मिलित अवस्था से ही अपूर्व की उत्पत्ति होती है। इन्हीं अरणियों के घर्षण से सन्तान होती है।
अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भइवसुधितो गर्भिणिषु।
दिवेदिवे ईड्यो जागृवभ्दि: हविष्मभ्दि: मनुष्यभिराग्नि:।।

(ऋ. 3.29.2)

माता स्रष्टा भी है और सृष्टि (माया) भी है। यही उसकी शक्ति का स्वरूप भी है। पति केअंश को उसी की सन्तान बना देना ही दिव्यता है उसकी। आत्मा स्त्री-पुरुष दोनों का समान है। ईश्वर प्रजापति भी समान भाव (द्रष्टा) में है। जीव पिता के रेत से माता के शोणित में होता हुआ- शरीर धारण करके बाहर निकल जाता है। माता-पिता दोनों जीव की यात्रा का मार्ग बनकर रह जाते हैं, किन्तु प्राण रूप में संतति में प्रवाहित रहते हैं।
हर प्राणी अर्द्धनारीश्वर है। दक्षिण भाग शिव तथा वाम भाग शक्ति है। वृषा और योषा है। भोग योनियों में प्राणी कुछ अलग से प्रयास नहीं कर सकता। मनुष्य योनि में अपने स्वरूप को समझ सकता है। अपने कामना के स्वरूप का विकास कर सकता/सकती है। वृषा में आग्नेय तत्त्वों का और योषा में सौम्य भावों का विकास किया जाता है। सोम की अग्नि में आहुति ही यज्ञ कहलाती है। वाम भाग की दक्षिण भाग में आहुति होती जाती है। वाम भाग के सारे अवयव आकार एवं भार में दक्षिण (दाएं) भाग के अवयवों से कम होते हैं। शरीर से स्त्री- पत्नी- सौम्या है जबकि भीतर आग्नेय है। अर्द्धांगिनी रूप में वाम भाग से सौम्या (पुरुष के संदर्भ में), स्वयं वाम भाग में भारी-भीतर में अग्नि है, पुरुष भीतर सोम है। हृदय में तीन अग्नि (पुरुष) प्राण—ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र हैं। पुराणों में इन्द्र को ही महेश कहा है। हृदय रूप तीनों अग्नि प्राण दोनों ही शरीरों में स्थित हैं। तीनों की तीन सौम्य शक्तियां- क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी, काली हैं।
ये तीनों शक्तियां ही प्रकृति के तीन गुण हैं—सत-रज और तम। प्रत्येक नारी इन्हीं त्रिगुणों के आवरणों के सहारे अपने मायाभाव को प्रकट कर पाती है। ये बाहरी स्त्री के साथ भीतरी स्त्री के शक्ति रूप भी हैं। अर्द्धनारीश्वर का यही नारी अंश शक्ति बनता है। इन तीनों शक्तियों के शक्तिमान यानी कि विष्णु-ब्रह्मा-इन्द्र ही क्रमश: पोषक-नियामक व संहारक प्राण हैं। इन तीनों के कार्य शक्तियां ही करती हैं। तब कहते हैं कि पुरुष और प्रकृति मिलकर सृष्टि चलाते हैं। अत: इन दोनों का संतुलन बहुत आवश्यक है।
शिव है तो शक्ति है। शक्ति शिव के भीतर ही है। जब शक्ति सुप्त है, तब शिव भी शव की तरह निष्क्रिय है। पुरुष भी शिव है, नारी भी शिव है। दोनों की अपनी-अपनी शक्तियां हैं। ये शक्तियां ही दोनों के जीवन को चलाती हैं। शक्ति या ऊर्जा का कोई लिंग नहीं होता। देवी-देवता भी सृष्टि के पॉजिटिव-नेगेटिव तत्त्व होते हैं, किन्तु इनका भी लिंग भेद नहीं होता। बुद्धि या भावना का कोई लिंग भेद हो सकता है क्या? प्राणों का कोई भेद नहीं होता, सिवाय स्थूल और सूक्ष्म के।
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‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ के सिद्धान्त के आधार पर प्रकृति और पुरुष रूप दो मुख्य श्रेणियां हैं जो जीवन व्यवहार में योषा-वृषा रूप में दिखाई पड़ते हैं। योषा तो सूक्ष्म-तरंग ही है किन्तु परिणाम स्थूल होते हैं। ब्रह्म की माया ही सुप्त अवस्था में बल, जाग्रत अवस्था में शक्ति तथा कार्य अवस्था में क्रिया कहलाती है। ब्रह्म और माया सृष्टि की आरम्भिक अवस्था है। यहां क्रिया का अभाव है। अत: सम्पूर्ण सृष्टि ‘मानसी’ कहलाती है। चेतना तथा चिन्तन पर आधारित है। दुर्गा सप्तशती में इसी चेतना स्वरूप की स्तुति करते हुए कहा गया है
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
(दुर्गासप्तशती)

शक्ति रूप भी मात्र कामना है- क्रिया का अभाव यहां भी है, गुणों का अभाव भी है। अत: सृष्टि का निमित्त कारण बनती है। हमारे जीवन में कामना या तो सात्विक-विद्यामय (अंतरंग) होती है, अथवा तामसिक-अविद्यामय (बहिरंग)। दुर्गा सप्तशती में बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही दृष्टियां रखी गई हैं। बहिरंग भाव में असुरों के साथ युद्ध है, अन्तरंग भाव में असुरों की वास्तविकता और योषा का प्रभाव है। ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण अक्षर की अन्तरंग अथवा अमृत अक्षर कलाएं कहलाती हैं। अग्नि-सोम बहिरंग या पृष्ठ्य कलाएं हैं। अक्षर ही अमृत और मर्त्य क्षर में परिवर्तित होता है। ब्रह्म ही कर्म रूप ले रहा है। ब्रह्मा केन्द्र में प्रतिष्ठित रहते हैं, विष्णु और इन्द्र अग्नि और सोम से युक्त होते हुए क्षर सृष्टि में निर्माण में कारण बनते हैं। क्षर ब्रह्म से आगे स्थूल सृष्टि का क्रम बनता है। 
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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