लाल बहादुर शास्त्री का घर का नाम ‘नन्हे’ था। गुरु नानक का निम्नलिखित पद उन्होंने अपना जीवन-आदर्श बना लिया था – नानक नन्हे व्है रह्यो जैसी नन्ही दूब। और रूख सूख जाएंगे दूब खूब की खूब।। अर्थात् आदमी को सदैव नन्ही-सी दूब की तरह नन्हा यानी विनम्र रहना चाहिए। क्योंकि सूर्य के प्रचण्ड ताप से अथवा आंधियों की चपेट में आकर विशाल वृक्ष सूख जाते हैं या धराशायी हो जाते हैं परन्तु नन्ही-सी दूब सदाबहार बनी रहती है। वे जुझारू थे, इसलिए जीवट के साथ जेल से जनपथ तक जनकल्याण के लिए जूझते रहे। जीवट उनकी विशेषता थी और जूझना उनकी नियति। उन्होंने समस्याओं के समक्ष समर्पण नहीं किया प्रत्युत साहसपूर्वक सामना करके समाधान खोजे तथा राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण और सम्मान को सुरक्षित रखा। स्वाभिमान उन्हें कितना प्रिय था, इस संदर्भ में उनके कैशोर्य और तरुणाई की दो घटनाओं का उल्लेख मिलता है। पहली, किशोरावस्था में साथियों के साथ गंगा मेला देखने जाने और वापसी में किराया न होने पर साथियों को रवाना करने के बाद स्वयं तैर कर गंगा पार करने की है तो दूसरी आर्थिक अभाव में बीमारी के चलते पुत्री के निधन की है। उनके लिए देश अग्रगण्य था और देश की तुलना में परिवार नगण्य।
शास्त्रीजी स्वभाव से सरल, व्यवहार से विनम्र और आदत से अहंकार रहित थे। उनके संस्मरण-लेखक सुमंगल प्रकाश ने उल्लेख किया है कि 27 मई 1964 को नेहरूजी के निधन के पश्चात उनके उत्तराधिकार के प्रश्न पर 2 जून 1964 को संसद के सेन्ट्रल हॉल में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष कामराज की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में बैठने की कोई भी जगह खाली न देखकर शास्त्रीजी दरवाजे के पास की सीढ़ी पर बैठ गए थे। यह घटना जहां एक और शास्त्रीजी की निरभिमानता का प्रतीक है वहीं उनकी महानता का परिचायक भी है। वह भी एक संयोग ही था कि उस दिन सेन्ट्रल हॉल की कुर्सियों पर बैठने वाले व्यक्तियों में से किसी को भी प्रधानमंत्री पद प्राप्त नहीं हो सका। पर शास्त्रीजी के नाम पर सर्वसहमति हो गई थी। सेन्ट्रल हॉल के दरवाजे की सीढ़ी पर बैठने वाले शास्त्रीजी केंद्र सरकार के सर्वाधिक शक्तिमान पद पर आसीन हो गए थे। अपने विनम्र व्यवहार और निष्काम कर्म के बल पर वे वामन से विराट हो गए थे।