सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस क्षेत्र पर चीन ने करीब 71 साल से नजरें गड़ा रखी हैं। चूंकि लद्दाख की सीमा चीन के आधिपत्य वाले तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र से जुड़ी है, इसलिए भी वह अपना दबदबा बढ़ाने की नाकाम कोशिशों में जुटा रहता है। पिछले साल लेह-लद्दाख की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की नीतियों और दुस्साहस पर सटीक टिप्पणी की थी कि ‘विस्तारवाद का दौर खत्म हो चुका है। यह विकास का दौर है।’
आज लद्दाख को चहुंमुखी और बहुमुखी विकास के दौर का इंतजार है। अगर केंद्र सरकार को सारा ध्यान चीनी सेना के नापाक इरादों को नाकाम करने में नहीं लगाना पड़ता तो यह दौर शायद सालभर पहले ही शुरू हो जाता। १ जुलाई को होने वाली बैठक में दूसरे पहलुओं के साथ-साथ लद्दाख के विकास के मुद्दे को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है। दर्रों की इस भूमि पर प्रकृति की भरपूर कृपा है। सिंधु और इसकी प्रमुख सहायक नदियों वाला यह क्षेत्र न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा राजस्थान को, बल्कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत को भी जल संसाधन प्रदान करता है। जल प्रबंधन की नई परियोजनाएं लद्दाख की आजीविका और पारिस्थितिक तंत्र के साथ-साथ पूरे नदी तंत्र की सेहत के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं। वहां भू-तापीय संसाधन की खोज की गई है।
राष्ट्रीय राजमार्ग पर छोटी बस्तियों और सेना के ठिकानों को ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए इन संसाधनों को विकसित किया जा सकता है। लद्दाख में ट्रेकिंग, पर्वतारोहण, मठों के बौद्ध पर्यटन जैसे आयोजन इसे पर्यटन के नक्शे पर भी चमका सकते हैं। विकास का मसौदा भौगोलिक दशा, वातावरण, संसाधनों तथा वहां के लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप होगा तो सोने पे सुहागा। सर्वदलीय बैठक में इन मुद्दों पर विचार-विमर्श कर अगर लद्दाख के विकास का रास्ता खुलता है तो यह देश के लिए बड़ी उपलब्धि होगी। यह विकास चीन की कुदृष्टि के खिलाफ कारगर हथियार भी होगा।