प्रधानमंत्री और योजना आयोग के अध्यक्ष रहे डॉ. मनमोहन सिंह ने समीक्षा का आह्वान किया। सरकारी अधिकारियों, व्यापारिक घरानों और सिविल सोसाइटी के साथ सलाह-मशविरा हुआ। डॉ. सिंह ने इन सुझावों का मूल्यांकन किया। सुझाव इस तरह थे कि योजना आयोग को व्यवस्था में सुधार के लिए सुधार आयोग बनना चाहिए, न कि आर्थिक योजनाओं का निर्माता; बदलावों के लिए प्रोत्साहन की ताकत बनना चाहिए न कि सिर्फ धन आवंटनकर्ता। उसी दौरान यूपीए सरकार के प्रति असंतोष की लहर के चलते नरेन्द्र मोदी सत्तारूढ़ हुए और उन्होंने योजना आयोग को भंगकर उसकी जगह नीति आयोग का गठन किया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नीति आयोग से भी खफा हैं और चाहती हैं कि योजना आयोग की वापसी हो। पश्चिम बंगाल में जब कम्युनिस्ट पार्टी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए तैयार हुई और उसने हल्दिया सेज की स्थापना के लिए इंडोनिशियाई सलीम समूह और सिंगूर में नैनो कार संयंत्र स्थापित करने के लिए टाटा समूह को आमंत्रित किया तो ममता बनर्जी उन लोगों के पक्ष में सडक़ों पर उतर आई थीं जिनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया था। मई 2011 में उन्होंने सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार के 34 साल के शासन को समाप्त कर दिया। वह योजना आयोग में गईं और राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग की जो पूरी नहीं हुई।
पिछली गलतियों को दोहराने से बचने के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक है। 2009 में यूपीए सरकार जब दोबारा सत्ता में आई तो देश के विकास की कहानी में पहले से ही गहरी दरारें दिखने लगी थीं। विकास तेज था लेकिन समावेशी नहीं। 12वीं पंचवर्षीय योजना जो कि योजना आयोग की आखिरी पंचवर्षीय योजना थी, का लक्ष्य भी ‘तेज, अधिक टिकाऊ और अधिक समावेशी विकास’ था। दस वर्ष बीत गए हैं, नीति आयोग भी भारत के विकास का स्वरूप बदलने में असमर्थ रहा है। असमानता की खाई और चौड़ी हो गई है। निचले स्तर पर आय नहीं बढ़ी है जबकि करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। शिक्षित युवाओं के लिए भी पर्याप्त वेतन के साथ अच्छी नौकरियां उपलब्ध नहीं हैं। जनसांख्यिकीय लाभांश आपदा में बदल रहा है। महानगरों में भी पीने के पानी की किल्लत हो रही है, पहाड़ ढह रहे हैं, समुद्र तट नष्ट हो रहे हैं, नदियों का पानी जहरीला हो रहा है और भारतीय शहर सबसे प्रदूषित शहर बन गए हैं।
भारत सरकार ने माना है कि देश में नौकरियों के अवसर और उद्योग बढ़ाने होंगे। साथ ही, अर्थशास्त्री और बड़े औद्योगिक घराने व्यापार बढ़ाने तथा अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखलाओं के साथ तेजी से एकीकृत होने के लिए सीमाओं को और अधिक खोलने पर जोर दे रहे हैं। इन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत को 1991 से पहले के समाजवादी युग में नहीं जाना चाहिए, पर उनके पास रोजगार सृजन बढ़ाने के लिए ठोस उपाय नहीं हैं। २००८ के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ‘न्यू नॉर्मल’ के लिए सिद्धांतों को बदलने का अर्थशास्त्रियों ने वादा तो किया पर वे ऐसा नहीं कर पाए। इसी का नतीजा हुआ कि २०२० में जब कोरोनो महामारी के चलते वैश्विक आपूर्ति शृंखलाएं जाम हो गईं तब वैश्विक आर्थिक वृद्धि फिर से पटरी से उतर गई। एक बार फिर से अमीर और गरीब के बीच की गहरी खाई उजागर हुई। नीति-निर्माताओं ने फिर संकल्प लिया कि ‘दोबारा कभी नहीं’ और वे आर्थिक मॉडल को बुनियादी तौर पर बदल देंगे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। देश को अर्थव्यवस्था के नए मॉडल और सार्वजनिक नीतियों को आकार देने के नए तरीकों की जरूरत है, जो बाजार-समर्थक अर्थशास्त्रियों के वर्चस्व से मुक्त हों। क्योंकि उनके आर्थिक सिद्धांत दुनिया भर में विफल हो रहे हैं।
अब समय आ गया है कि आर्थिक प्रगति के प्रतिमान बदले जाएं। नए उपायों की आवश्यकता है जो अर्थशास्त्र विज्ञान के पास नहीं हैं। भारत को इकोनॉमिक गवर्नेंस के लिए नए मॉडल की जरूरत है। नीति आयोग की जगह योजना आयोग को वापस लाना समाधान नहीं है। आम लोगों के विचारों को सुना जाना चाहिए, न कि केवल उन विशेषज्ञों के विचारों को जिनके पास जमीनी स्तर के लोगों के लिए अर्थ रखने वाले आंकड़े नहीं हैं।
(द बिलियन प्रेस)