कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण के विराट् स्वरूप को देखकर अर्जुन कहता है कि आपके इस विराट् रूप को देखकर अपार हर्ष हुआ किन्तु मन में भय भी उत्पन्न हो गया। आप पुन: मुझे अपना वही सौम्य रूप दिखाइये। तब कृष्ण कहते हैं कि यह विराट् रूप अत्यन्त दुर्लभ है। देवता भी इस विराट् स्वरूप के दर्शन की अभिलाषा करते हैं-
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण:।। (11.52)
आश्चर्य इस बात का भी है कि जिस विराट् स्वरूप को देखकर तीनों लोकों में सब भयभीत हो उठे, उसे पुन: देखने की अभिलाषा कैसे उठ सकती है! भगवान के तीनों काल विराट् रूप में प्रकट हुए थे। भविष्य काल के प्रति जिज्ञासाएं सभी की रहती है। प्रत्येक योनि का एक काल भी कर्मानुसार नियत है।
इसके आगे की स्थिति जानने की उत्सुकता तो रहती ही है। विराट् रूप में सभी को अपनी भावी स्थिति प्रत्यक्ष हो रही है। 84 लाख योनियों में परिगणित देवता भी नियत समय के लिए ही देवपद प्राप्त करते हैं। जब उनके किए हुए पुण्य क्षीण हो जाते है तब उन्हें पुन: भूलोक पर आकर मनुष्य की तरह ही रहना होता है।
अत: देवत्व की यह अवधि कब तक है और इसके आगे वे मनुष्य योनि में किस स्थिति में रहेंगे, यह जानने की इच्छा देवताओं को भी अवश्य रहती है। किन्तु देवता तो अक्षर सृष्टि का अंग हैं, उनको क्यों आवश्यकता पड़ेगी सूक्ष्म दर्शन की? तीन प्रकार के देवताओं* में प्राणरूप देवता ही सूक्ष्म सृष्टि के अन्तर्गत है, अन्य दो प्रकार के प्राणी रूप देवता तो अपना भविष्य जानने की इच्छा रखते ही हैं।
कृष्ण ने इस विराट् रूप के दर्शन का एकमात्र मार्ग अनन्य भक्ति को बताया है। इस रूप में प्रवेश भी किया जा सकता है-
भक्त्या त्वनन्यया शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।। (11.54)
परम पुरुषार्थ मोक्ष का लक्ष्य यह लीनता ही है। भगवान को अंशी मानकर उनसे प्रेम किया जाए, कृष्ण के अलावा अन्य में ध्यान न लगे, संसार से विरक्त होकर भगवान से मन जोड़ देना आदि अनन्य भक्ति के अर्थ हैं। सभी पदार्थों को ब्रह्म रूप मानकर चित्त को ब्रह्म में स्थित करना भी एक अर्थ है।
कृष्ण कहते हैं कि इस प्रकार अनन्य भक्ति से ही मेरा तात्विक ज्ञान और दर्शन हो सकता है। अर्जुन! तुम अज्ञान का नाश करने में समर्थ हो, इसलिए तुम्हें उपदेश दिया है। अद्वैतावस्था में सब एक हो जाता है। साधक उस अवस्था का दृष्टा रह जाता है। पुरुषोत्तम रूप पूर्ण अद्वैत न होने पर भी विशिष्ट द्वैत भाव है। अद्वैत और द्वैत के मध्य है।
आत्मा को देखना अनुभव से ही संभव है। हृदय ग्रन्थि का भेदन चाहिए। हृदय में कामना के रहते अज्ञान नष्ट नहीं होता। आत्मा केवल मनोवृत्ति के द्वारा ही अनुभूत होता है, मनोमय है-प्राण और शरीर का नियन्ता है।
मेरे लिए जो कर्म किया जाए उसका नाम मत्कर्म है। जो मत्कर्म करता है उसे मत्कर्मकृत कहा है।
भक्त प्रभु के लिए कर्म करता है, अपना कर्म नहीं करता। फिर भी वह प्रभु को अपना आश्रय नहीं मानता। परन्तु जो भक्त मेरा कर्म करता है वह मुझे ही एकमात्र गति मानता है-इस लोक में और परलोक में भी। उसे मत्परम कहते हैं। जो मुझे सबका आत्मा समझकर सब प्रकार से भजन करता है- मद्भक्त है।
जो अनन्य शरण है, जिसका कोई दूसरा आश्रय नहीं। इस भाव से जो निरतिशय प्रीति से भजन करता है, वह भक्त है। भक्त का कार्य- मत्कर्म करना है। यहां भक्त और भगवान दो रहते हैं, द्वैत भाव है। जबकि लीनता अद्वैत भाव में ही सम्भव है।जब समस्त कर्म भगवान के हों, तब भगवान ही बचने हैं।
उद्देश्य, हेतु, कर्म करने के कारण, शरीर, मन और बुद्धि के अतिरिक्त अहंकार की भी आवश्यकता रहती है। प्राण के कारण ही इन सबकी चेष्टाएं कर्म में बदलती हैं। इस प्राण का निजी कर्म क्या है? श्वास-प्रश्वास का ग्रहण और त्याग। यही जीवन है।
इसके बन्द हो जाने पर मन भी नहीं रहता, इन्द्रियां जड़ पदार्थ मात्र रह जाती हैं। प्राण ही सबकी चेतना है। प्राण ही ईश्वर की प्रधान शक्ति है। प्राण कर्म भगवत् कर्म है। जो मंत्र मन को त्राण करता है, वह श्वास-प्रश्वास है। प्राण ही ईश्वर की प्रकृत क्रिया है।
जिस प्राण क्रिया से यह जगत व्यापार हो रहा है, उसी जगत व्यापार से मन को लौटाने के लिए- अर्थात् मन को प्राण-वाक् से लौटाकर आनन्द-विज्ञान की ओर लाने के लिए इसी श्वास-प्रश्वास के भीतर आश्रय लेना पड़ेगा। इसका मार्ग है- प्राण कर्म।
योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी कहते हैं कि प्राणायाम ही वह कर्म है जिसका साधन करते-करते परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। प्राण साधना ही आत्मकर्म है। यही मत्कर्म है। साधक उनका ही हो जाता है, वही हो जाता है। यही अनन्य शरण है।
श्वास-प्रश्वास की क्रिया को ग्रहण-त्याग कहा गया है। यहां त्याग ही ग्रहण है और ग्रहण ही त्याग है। इसी का नाम वैराग्य बुद्धि योग है। यह मानवता को- प्राणीमात्र को गीता की अनूठी देन है। व्यक्ति सारे कर्म करता हुआ भी यह समझे कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। राम के कर्म और कृष्ण का उद्घोष समान ही तो थे-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। (4.8)
पुरुषार्थ का लक्ष्य लोक संग्रह ही होना चाहिए, यदि आप लोक कल्याण के लिए पैदा हुए हो। सांसारिक भी रहें, और वैराग्य भाव भी बना रहे। नश्वर जीवन के मध्य दृष्टि शाश्वत पर ही बनी रहे। शरीर नश्वर है, आत्मा शाश्वत है। जीना तो मनुष्यों की तरह ही है, किन्तु आसक्ति मुक्त रहकर।
आसक्ति स्थूल से बांधती है। मन बाहर दौड़ता है, चंचल बना रहता है। भक्त कैसे बन सकेगा। भीतर जाने के लिए अनासक्त भाव-कर्म, फल, विषय से छूट जाना चाहिए। जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके, आसक्ति का त्यागकर करता है, वह जल से कमल-पत्र की भांति लिप्त नहीं होता। तभी प्रभु के दर्शन कर पाता है।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। (5.10)
राग-द्वेष शरीर के धर्म हैं। विषयग्रहण का भार (राग-द्वेष युक्त) इन्द्रियों पर है। वैराग्य, भक्तियोग, ईश्वर के लिए कर्म करना आदि आत्मा के विषय हैं। अत: सांसारिक कर्मों में युक्त मनुष्य (बुद्धियोगी) वैराग्य भाव से सदा तृप्त रहता है। वही ईश्वर को प्राप्त होता है।
क्रमश:
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*तीन प्रकार के देवता-
प्रथम प्रकार के देवता में प्राण रूप एक देवता ही रयि व प्राण मिलकर डेढ़ हो जाता है। इन्हीं के भेद अग्नि, वायु और आदित्य हैं। इन्हीं के विस्तार से देवता तैतीस हो जाते हैं।
दूसरे प्रकार के देवता तारामण्डल लोकों में रहने वाले प्राणी हैं। इनमें मनुष्य से ऊपर की श्रेणी के 8 विभाग, फिर मनुष्य और पशु-मृग-सरीसृप-पक्षी तथा स्थावर नामक पांच तिर्यक् श्रेणियों सहित चौदह प्रकार के हैं।
तीसरे प्रकार के देवताओं में देव, पितृ, गन्धर्व आदि भूलोक के ही प्राणी आते हैं।
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