कामना से सृष्टि भी, लय भी-गुलाब कोठारी
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand :‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख –कामना से सृष्टि भी, लय भी
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : हर प्राणी अद्र्धनारीश्वर है। दक्षिण भाग शिव तथा वाम भाग शक्ति है। वृषा और योषा है। भोग योनियों में प्राणी कुछ अलग से प्रयास नहीं कर सकता। मनुष्य योनि में अपने स्वरूप को समझ सकता है। अपने कामना के स्वरूप का विकास कर सकता/सकती है। वृषा में आग्नेय तत्त्वों का और योषा में सौम्य भावों का विकास किया जाता है। क्योंकि स्त्री बाहर से सौम्या तथा भीतर आग्नेय है जबकि पुरुष बाहर आग्नेय व भीतर सौम्य है। इस प्रकार स्त्री भी पुरुष है तथा पुरुष भी स्त्री है। पुन: सोम की अग्नि में आहुति ही यज्ञ कहलाती है। वाम भाग की दक्षिण भाग में आहुति होती जाती है। वाम भाग के सारे अवयव आकार एवं भार में दक्षिण (दाएं) भाग के अवयवों से कम होते हैं। वामांग में रहने के कारण स्त्री को वामा भी कहा जाता है। यह वामा स्वयं के अद्र्धांग में आग्नेय तथा सौम्य दोनों है।
एक ही शरीर का दक्षिण भाग आग्नेय तथा वाम भाग सौम्य है। यह भी एक दाम्पत्य भाव बनता है। दोनों के मध्य भी यज्ञ होता है। दायां भाग शब्दवाक् प्रधान है। वाम भाग अर्थवाक् प्रधान होता है। इनका संचालन श्वास-प्रश्वास से होता है। दाहिनी नासिका का श्वास सूर्य-स्वर (उष्ण) तथा बांयी नासिका का श्वास चन्द्र-स्वर (शीतल) कहलाता है। इन्हीं के मध्य अग्नि-सोमात्मक यज्ञ चलता रहता है। इनको इड़ा-पिंगला नाडिय़ां भी कहते हैं। जब अभ्यास द्वारा दोनों को रोककर मध्य की सुषुम्ना नाड़ी को चालू किया जाता है, तब श्वास-प्रश्वास का उत्कर्ष मानते हैं। यहीं से जीवन में साधना की शुरुआत होती है।
सुषुम्ना का क्षेत्र शीतलता का क्षेत्र है- सोम लोक है। अनन्त शान्ति में प्रवेश का मार्ग है। स्त्रैण भाव का उत्कर्ष है। स्त्री ही प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है। समर्पण का मार्ग! प्रेम कहो या भक्ति, एक ही बात है। यही कार्य सुषुम्ना के माध्यम से होता है- यही अवस्था ध्यान है। न वर्तमान, न भविष्य। जैसे पत्नी लीन होकर पति में समा जाती है। सोम का अग्नि में समा जाना ही तो यज्ञ है। कृष्ण कहते हैं कि नासाग्र पर ध्यान करो। भू्र-मध्य पर ध्यान भी सुषुम्ना के बिना संभव नहीं है। शीतलता का यह प्रयोग ही शुद्ध भक्ति है। उष्णता की अल्पता है। अहंकार की अल्पता है। परमेश्वर रूपी पुरुष में स्त्रैण रूप जीवात्मा का समर्पण है। ”जब पता तेरा लगा, तो अब पता मेरा नहीं’’ यही मर्म समझ आता है। प्राण अदृश्य, सूक्ष्म, और दिव्य संसार है। जीवात्मा भी सूक्ष्म जगत का अंग है। दाम्पत्य भाव भी शरीर के माध्यम से प्राणों का एकीकरण ही है। चूंकि स्त्री के प्राण पति के प्राणों से युक्त रहते हैं अत: पति ही उसका देवता है। समस्त गतिविधियों का केन्द्र वही है। उसके मन मन्दिर में मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित रहता है। स्त्री की सभी आहुतियां वहीं लगती हैं। साधना क्रम में भी यही होता है जहां ब्रह्म ही एकमात्र लक्ष्य रहता है। जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति रूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञ को करने वाले) जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गई है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है—
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविब्र्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। (गीता 4.24)
इस प्रकार जब सभी कर्म एक में ही समाहित हो जाते हैं, तब यही कर्म की पूर्णता है। शरीर के भीतर कितने प्रकार के यज्ञ चलते हैं अथवा किए जाते हैं। इसमें आत्मा यज्ञकर्ता है। गीता में कृष्ण इस प्राण यज्ञ को समझाते हुए कहते हैं कि योगीजन परमात्मा रूप अग्नि में आत्मा को आहूत करते हैं। ईश्वर के साथ एकाकार हो जाते हैं। समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नि में हवन करते हैं। समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं। इन्द्रियों की क्रियाओं तथा प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से दीप्त आत्मसंयम योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं। कई पुरुष तपस्या रूप, योग रूप, स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ किया करते हैं। अपान वायु का प्राणवायु में अथवा प्राणवायु का अपान वायु में हवन करते हैं। प्राण-अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में हवन किया करते हैं। इस प्रकार शरीर के भीतर भी अग्नि-सोमात्मक (योषा-वृषा रूप) यज्ञ निरन्तर चलता रहता है।
श्वास-प्रश्वास ही स्त्रैण कामना का जनक भी है। अत: यह जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण यज्ञ भी है। चूंकि हमारे तीन शरीर हैं, अत: श्वास-प्रश्वास के भी तीन स्तर होते हैं। एक स्तर हमारे स्थूल श्वास-प्रश्वास का है, जिससे हम प्राणायाम करते हैं। दूसरा स्तर सूक्ष्म श्वास-प्रश्वास का है। इसमें इन्द्र प्राण गति रूप है और विष्णु प्राण आगति रूप है। इस क्रिया से हृदयस्थ ब्रह्म की प्रतिष्ठा बनी रहती है। एक अन्य श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया कारण शरीर से जुड़ी है। इसमें ब्रह्मरंध्र से सूर्य प्राण शरीर में प्रवेश करते हैं। पार्थिव प्राण भी शरीर में प्रवेश करते हैं। इनसे कारण शरीर का संचालन होता है। सूक्ष्म प्राण परा प्रकृति से जुड़े रहते हैं। हमारे पूर्व कर्मों के फलों के अनुसार ही हमारे मन में इच्छा पैदा होती है। इच्छा ही स्त्री रूप में पत्नी है। वही कर्मफल भोगने के लिए प्रेरित करती है। यह तथ्य स्पष्ट ही है कि व्यक्ति भीतर जीवरूप अकेला ही जीता है। ब्रह्म अकेला ही है। वह स्वयं ही अपनी पत्नी बनकर सृष्टि रचना का कार्य करता है। उसका कर्म ही अकर्म है और अकर्म ही कर्म है। ब्रह्म का उद्घोष है कि मैं अजन्मा होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं। (गीता ४/६)।
मन कामना युक्त होकर प्राण को प्रेरित करता है। इस मन के केन्द्र में हृदय है। मन जब हृदयस्थ ब्रह्म से एकाकार होना चाहता है तब प्राणों का संचालन करता है। वाक् परिणाम को कहते है। वाक् और ब्रह्म का सम्पर्क सूत्र प्राण ही होता है। प्राणों को कामना ही प्रेरित करती है। यही स्त्री की भूमिका है। उसके मन की दृढ़ कामना ब्रह्म के मन को भी प्राणन से जोड़ती है। गीता में कृष्ण कहते हैं—
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्।। (8.12)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।। (8.1३)
इन्द्रिय निग्रह करके, मन को हृदय में तथा प्राण को मस्तिष्क में स्थापित करके ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर का त्याग करता है वह परमगति को प्राप्त करता है। जिस कामना ने ब्रह्म को सृष्टि के लिए प्रेरित किया, स्त्री रूप धारण करके ब्रह्म का विस्तार किया, उसी कामना द्वारा जीव पुन: अपने ब्रह्म में लीन हो जाता है। अब न कामना, न स्त्री, न सृष्टि। पुन: ब्रह्म अद्वय रूप हो गया।
क्रमश:
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