ये दोनों व्यक्ति के स्वभाव के अंग होते हैं। प्रकृति स्वभाव को कहते हैं। अत: हम या तो दैवी प्रकृति के होते हैं अथवा आसुरी प्रकृति के। दैवी प्रकृति में देवता यानी प्रकाश मुख्य रहते हैं। आसुरी प्रकृति में अंधकार अर्थात् अज्ञान-अविद्या की प्रधानता होती है। अत: प्रत्येक कर्म में प्रत्येक क्षण देवासुर संग्राम की स्थिति जीवन में बनी ही रहती है।
किसी भी व्यक्ति को बाहर कर्म करने से पूर्व भीतर (आभ्यान्तर में) कर्म करना पड़ता है। चिन्तन करना पड़ता है। कर्म करने की इच्छा को तोलना पड़ता है। यहां भी दैवी और आसुरी बुद्धि का संग्राम रहता है। साधारण बुद्धि अहंकार-युक्त होती है। अत: बुद्धिमान के निर्णय समझदार के निर्णय से भिन्न होंगे। बिना पूर्वाग्रह के संतुलित निर्णय विवेक/प्रज्ञा आधारित ही हो सकते हैं। यही दैवी भाव है। बुद्धि की हठधर्मिता को प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। व्यक्ति स्वयं की मर्जी से भी जीना चाहता है, चाहे उसकी प्रकृति विपरीत ही क्यों न हो। तब उसके प्रत्येक कर्म में देवासुर संग्राम बना ही रहेगा।
आवरण जो हटाए वह कर्म ही धर्म
मर्जी से किए कर्म का फल व्यक्ति को चाहिए, यही तो उसका हठ है। फल उसके हाथ में नहीं है। कब मिलेगा, यह भी प्रकृति ही तय करती है। तब क्या यह प्रकृति से सीधा टकराव नहीं है? क्या व्यक्ति प्रकृति से जीत सकता है? एक बल प्रकृति का है, एक व्यक्ति का आत्मबल है।आत्मबल यदि दैवी भाव का है तो व्यक्ति संकल्प करके विजय प्राप्त कर सकता है। यही बात विषयों के आकर्षण पर भी लागू होती है। असुर प्राण ९९ हैं, देव प्राण ३३ हैं। देवता निर्बल तो हैं, किन्तु प्रकाशमान हैं। देवताओं को मानव ही शक्तिमान बनाता है। कृष्ण कह रहे हैं-
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। (गीता ३.११)
अर्थात् यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को उन्नत करो, वे तुम लोगों को उन्नत करें। एक-दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
यही बात असुरों पर भी लागू होती है। मानव उनको भी उन्नत कर सकता है, यदि उसका आसुरी स्वभाव है तो। तब व्यक्ति में काम-क्रोध-लोभ (नरक के तीन द्वार) बुद्धि को प्राप्त होते हैं। कामना मन का विषय है, क्रोध प्राणों का तथा लोभ वाक् (पदार्थ) का विषय है। मन-प्राण-वाक् ही आत्मा है। मन-प्राण-वाक् ही अव्यय पुरुष की सृष्टि साक्षी कलाएं हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है-आसुरी शक्तियां काम-क्रोध-लोभ के द्वारा आत्मा के स्वाभाविक विकास को आवरित कर देती है। इसके परिणाम स्वरूप मन की शान्ति उत्तरोत्तर घटती जाती है, अशान्ति बढ़ती जाती है। आत्मा का बल घटता जाता है।
धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम
आसुरी कामनाओं की पूर्ति के साथ देवबल निरन्तर घटता ही जाता है। कामनापूर्ति में, प्राप्त वस्तु के संरक्षण में, दूसरों से रक्षा करने में, वस्तु का भोग करने में प्राणशक्ति (दैवी) भी निर्बल होती है। यदि व्यक्ति के पूर्व जन्मों के संस्कार भी ऐसे ही रहे थे तब तो विकारों का आवरण और दृढ़ होता जाएगा। मन की इच्छाएं फैलती ही जाएगी। वृद्धावस्था आते-आते कामना चरम छूने लगती है।लेकिन शरीर, इन्द्रियां, ऊर्जा आदि स्वयं कामनापूर्ति में अवरोध पैदा कर देने वाली हैं। राग तब क्रोध का रूप लेने लगेगा। पिछली स्मृतियां भी समय-समय पर उदित होती रहती हैं, स्वाभाविक शान्ति का उच्छेद (नाश) कर देती है। चेतना यानी आत्मा का रश्मि रूप ज्ञान बुद्धि, मन और इन्द्रियों में क्रमश: प्रकाश देता रहता है। ये काम, क्रोध व राग-द्वेष उस आत्मा के प्रकाश रूप ज्ञान-विज्ञान को मलिन कर देता है। पहले इन्द्रियों में आए हुए ज्ञान को मलिन करता है। क्योंकि वहां ज्ञान रूप प्रकाश अल्पमात्रा में पहुंचता है।
अत: उसको मलिन करना सहज है। बाद में मन में आए हुए आत्मा के प्रकाश को (ज्ञान-विज्ञान), फिर बुद्धि में आए हुए प्रकाश को मलिन करता है। यह मलिन भाव आत्मा में दिखाई देता है। कहा है कि आत्मा बुद्धि से परे है। काम तो इन्द्रिय-मन-बुद्धि तक है अत: उसे शत्रु मानकर नष्ट कर दो। कृष्ण ने तीनों प्रवृत्तियों को नरक का द्वार कहा है-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।। (गीता १६.२१)
अव्यय से बाहर कुछ भी नहीं
दुर्गा सप्तशती में देवी के तीन रूप इन्हीं तीन असुरों के नाश का संकेत करते हैं। इन्हीं शक्तियों का विकास करके हम दैवी भाव को प्रकट कर सकते हैं। कृष्ण जब कहते हैं- परित्राणाय साधूनां, तो इन दैवी भावों की रक्षा का ही संकेत करते हैं। विनाशाय च दुष्कृताम-भी इन्हीं आसुरी शक्तियों को निर्बल करने के लिए है।
किन्तु जीवन में हम इस क्रम को- इस देवासुर संग्राम को प्रतिक्षण घटित होते देखते हैं। तब ‘यदा यदाहि…’ का क्या यह अर्थ नहीं होगा कि जीवन में प्रतिक्षण ही जब धर्म के स्थान पर अधर्म हावी हो रहा है, तब मेरे कृष्ण रूप के प्रकट होने की, मेरे आत्मबल को जाग्रत करने की आवश्यकता हर क्षण ही है।
सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण
कृष्ण कह रहे हैं-”धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।’ कौन सा युग होगा वह? हर क्षण मुझे अपने हृदय में बैठे कृष्ण को याद रखना है और यह भी कि मैं भी उसी का अंश हूं। मेरा स्वभाव यानी प्रकृति क्यों नहीं इन आसुरी शक्तियों से युद्ध करके इन्हें परास्त करने को प्रवृत्त करतीं? मुझे मेरे भीतर स्वधर्म की स्थापना करनी है। इसीलिए तो मैंने जन्म लिया है। जैसे ही धर्म की स्थापना होगी, मेरी विद्या-धर्म-ज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य तथा पुरुषार्थ-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की भूमिकाएं पूर्ण होने लगेंगी। आसुरी शक्तियां- अविद्या बीच में बाधक बनने की क्षमता खो चुकी होंगी। तब मेरा जीवन मेरे पूर्ण नियत्रंण में होगा। मैं ही रथी, मैं ही सारथी रहूंगा।
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ का भी यही अर्थ है। यदा यदाहि… का एक अर्थ यह भी है कि मेरे अवतार का कोई समय निश्चित नहीं है। जब-जब ऐसी परिस्थिति आए, तब-तब अवतार ग्रहण कर मैं ये कार्य कर देता हूं। यदि नित्य जीवन में भी ऐसी परिस्थिति बनती है, तो मैं नित्य ही अवतरित हो सकता हूं। यहीं तो बैठा हूं।
क्रमश: