प्राण कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। सदा मन और वाक् के साथ रहता है। तीनों मिलकर ‘आत्माÓ कहलाते हैं। ‘प्राण निकलना’ ही इसका प्रमाण है। स्थूल प्राण अन्नमयकोश-शरीर का अंग है। प्राण तीनों शरीरों-कारण, सूक्ष्म, स्थूल- को एक सूत्र में पिरोकर रखता है। प्राण एक गतिमान तत्त्व है, जो मन का अनुसरण करता है। वाक् का निर्माण करता है। सूक्ष्म को स्थूल भी करता है।
वेद में ब्रह्म को रस और माया को बल कहा गया है। दोनों में तीन प्रकार का संसर्ग होता है-विभूति*, योग* और बन्ध*। इससे तीन प्रकार की संस्थाएं बन जाती हैं। विभूति संसर्ग से मन, योग संसर्ग से प्राण और बन्ध संसर्ग से वाक् संस्था बनती है। तीनों ही आत्मा की संस्थाएं हैं। इसमें प्राण ही अक्षर संस्था का निर्विकार, गतिमान तत्त्व है। प्राण रूप होने से यह अक्षर सर्वत्र व्याप्त है, सबका ईश्वर है। प्राणी वर्ग को रस प्रदान करता है। सब प्राणियों का जीवन है। शब्द-रस-गंध आदि से रहित एवं स्थान नहीं घेरता है। जिसके द्वारा सब प्राणवान हैं, वही प्राण है। सभी क्रियाओं का उपादान कारण प्राण ही है।
प्राण में विधारण शक्ति (पकडऩे की शक्ति) रहती है। इसी कारण पानी मिलाने से मिट्टी के सभी परमाणु एक साथ बंध जाते हैं। मिट्टी दीवार पर चिपक जाती है (लौंदा)। पानी सूखने पर भी मिट्टी नीचे नहीं गिरती। यह विधारण शक्ति है। प्राण क्रिया है, संकोच और विकास रूप है।
प्राणों में ग्रन्थि बन्धन नहीं है, सहचर सम्बन्ध है। वेद प्राण सृष्टि हैं। अत: स्वयंभू के नि:श्वसित वेद को अपौरुषेय, नित्य एवं विश्वातीत कहते हैं। इस प्राण सृष्टि को ईश्वर की मानसी सृष्टि कहा जाता है। वेदत्रयी-ऋक्-यजु:-साम में यत् भाग प्राण है, जू: वाक् है। यत् वायु है, जू आकाश है। प्राण की उपासना यजु: (योग) रूप में ही सम्पन्न होती है। समस्त भूत (प्राणी) प्राण की श्रेष्ठता के कारण ही इस यजु: रूप प्राण से संयुक्त होते हैं।
अत: इस प्रकार की उपासना यजु: के मिलन का मार्ग है। प्राण से ही आभामण्डल है-साम है। प्राण ही बल है जिससे प्राणी प्राणवान बनता है। ब्रह्म के मन में इच्छा हुई-एकोऽहंं बहुस्याम्। मन के साथ प्राण नहीं रहता तो इच्छा पूरी होती क्या? यह वाक् ही बहुस्याम् है। अत: प्रत्येक वाक् के मन होता है, कुछ भी निर्जीव नहीं है।
प्राण का महत्वपूर्ण रहस्य यही है कि प्राण व्यवहार में अक्षर संस्था है, देव है, क्षर के उपादान हैं। प्राण ही पितर है, प्राण ही ऋषि हैं और प्राण ही ब्रह्म है। जिनको हम देख नहीं सकते, जबकि हमारे शरीर के जनक भी प्राण हैं। प्राणायाम के प्राण इन्हीं का स्थूल रूप हैं। गीता में कृष्ण कहते हैं-
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। (गीता 6.13)
काया-सिर-गले को स्थिर करके, स्थिर होकर, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, इधर-उधर न देखता हुआ मुझमें चित्त वाला हो।
आगे भी कहते हैं-
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। (गीता 8.10)
जो अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी-मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थित करके निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस परमात्मा को प्राप्त होता है।
दोनों श्लोक दो भिन्न-भिन्न धरातल की बात करते हैं। पहला श्लोक नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाने की बात करता है। श्वास को आते-जाते देखने की बात कहता है। यह क्रिया स्थूल प्राणों से सम्बन्ध रखती है। इन्द्रिय मन को स्थिर करने का उपक्रम करती है। स्थूल प्राणायाम भी नासिका के श्वास-प्रश्वास और पेट के फूलने-सिकुडऩे पर टिका है। प्राण नीचे की ओर बहते हैं। दूसरे श्लोक में प्राण ऊपर की ओर, भृकुटी में स्थिर होते हैं। ये सूक्ष्म प्राण हैं, जो आत्मा से, श्वोवसीयस मन से जोड़ते हैं। परमात्मा से जोड़ते हैं।
प्राण ही जीवन का सूत्र है, प्राण ही ईश्वर तक पहुंचने का सेतु है। प्राण ही ईश्वर है। इसी में जगत समाया हुआ है। साधना का लक्ष्य है स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना। इस सम्पूर्ण यात्रा का आधार प्राण है। पृथ्वी का स्थूल प्राण पशु कहलाता है।
अत: सभी पार्थिव प्राणी भी पशु कहलाते हैं। पशु कहते हैं, जो पाश से (अविद्या-अस्मिता-आसक्ति-अभिनिवेश) बंधा होता है। यही अविद्या है, जो हमारे जन्म का आधार भी है और अपूर्णता का भी। चन्द्रमा के प्राण गंधर्व, सूर्यलोक के देव प्राण, परमेष्ठी लोक के पितर प्राण एवं स्वयंभू (सत्य) लोक के प्राण ऋषि प्राण कहलाते हैं।
इसी आधार पर प्रत्येक लोक की प्रजा का स्वरूप समझना चाहिए। चूंकि सृष्टि क्रम में ऋषि प्राण ही क्रमश: स्थूल बनते हुए ‘पशु’ प्राण रूप धारण करते हैं, अत: प्रतिसृष्टि क्रम में भी पशु प्राण उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हुए ऊध्र्वगामी होते जाते हैं। आत्मा की यात्रा का एकमात्र वाहन प्राण है, यदि आप मनोयाग से, दृढ़ संकल्प से आगे बढ़ते हैं। बिना मन की इच्छा के प्राण काम ही नहीं करते।
जिस प्रकार प्राण मन को क्रिया में बदलते हुए वाक् (विषय) में बदलते रहते हैं, विश्व का निर्माण करते रहते हैं, इसी प्रकार वाक् को मन तक पहुंचाने का महती कार्य भी प्राण ही करते हैं। यहां वाक् मन का अन्न है। इन्द्रिय प्राणों के माध्यम से विषय मन तक पहुंचते हैं। शरीर में अन्न भी मन तक प्राणों के द्वारा ही पहुंचता है। अर्थात् मन और अन्न प्राणों की सहायता से एक-दूसरे में बदलते रहते हैं। इन्द्रिय संयम से बाहर का अन्न भीतर जाना घटता जाता है।
मन की दिशा सृष्टि से दूर होती जाती है। अविद्या का भाव विद्या (धर्म-ज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य) भाव से परिष्कृत होता जाता है। अविद्या के साथ त्रिगुण (सत्व, रज, तम) के आवरण भी रहते हैं। जैसे-जैसे विद्याजनित प्राण अविद्या का परिष्कार करते हैं, विद्या भी सिमटती जाती है। जहां अविद्या का अंधकार हटा, विद्या की आवश्यकता भी समाप्त हो जाती है। ”निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन!’ की यही स्थिति बन जाती है। मन पूर्ण रूप से स्थूल विश्व से निवृत्त होकर विज्ञान-आनन्द के भीतर उतरने लगता है। मन भ्रू-मध्य में प्रतिष्ठित हो जाता है। प्राण ही मन को आगे-आगे गतिमान करते जाते हैं।
यहां दोनों श्लोकों को साथ रखिए। नासाग्र पर ध्यान स्थूल प्राणों से जुड़ा है। अब यह प्राण मन्द हो चुके। नासिका के भीतर ऊपर खिसकते हुए दिखाई देंगे। भू्र-मध्य में लीन हो जाएंगे। नासिका में प्राण प्रवाह दिखाई नहीं देगा। मानो भ्रू-मध्य से ही श्वास-प्रश्वास हो रहा है। शरीर शिथिल हो गया। प्राण ऊपर चढ़़ गए, सूक्ष्म प्राणों में जाकर प्रतिष्ठित हो गए। जब तक मन है, कामना जीवित रहती है। प्राणों की क्रिया रहती है। यहां महन्मन ही श्वोवसीयस मन की ओर बढ़ता है। अव्यय पुरुष के हृदय में प्रतिष्ठित-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र प्राणों के सम्पर्क में आता है।
मन सौम्य है। विष्णु प्राण सोम का, परमेष्ठी लोक/गोलोक का अधिष्ठाता है। सूर्य ही इन्द्र प्राण से भी जोड़ता है। सूर्य हमारा पिता होने से हमारी सीधी पहुंच सूर्य तक ही है, इन्द्र तक ही है। आगे ले जाने का कार्य इन्द्र प्राण ही करता है। इन्द्र ही आग्नेय तत्त्व है। अग्नि प्राणों को केन्द्र से बाहर फैंकता है। विष्णु प्राण ही अन्न को ब्रह्मा तक पहुंचाता है।
यहां सारा कार्य परा प्रकृति के नियंत्रण में होता है। यही दुर्गा है। इसी की तीन प्रकृतियां महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूप में हृदय में त्रिदेव की प्राणरूपा शक्तियां कार्य करती हैं। ब्रह्मा अग्नि प्राण है, अन्नाद है, जीव उसका अन्न है। विष्णु प्राण जीव को ब्रह्माग्नि में आहूत कर देता है।
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विभूति = जहां दो के संसर्ग से एक शेष रहे।
योग = जहां दोनों योग से अपूर्व की उत्पत्ति के बाद भी दोनों बने रहते हैं।
बन्ध = जहां दो के संयोग से तीसरा अपूर्व उत्पन्न होता है। दोनों योगिक नष्ट हो जाते हैं।
क्रमश:
शरीर ही ब्रह्माण्ड : दूजा न कोय
शरीर ही ब्रह्माण्ड : नारी सौम्या, स्त्री (योषा) आग्नेय है
शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीवन अमृत-मृत्यु रूप है
शरीर ही ब्रह्माण्ड : ब्रह्म : जगत प्रतिष्ठा
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शरीर ही ब्रह्माण्ड : बाहर प्रवृत्ति, भीतर निवृत्ति
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