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राजनीतिक दल आंबेडकर को अपना बताने में क्यों जुटे हैं?

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक

जयपुरJan 05, 2025 / 06:41 pm

Sanjeev Mathur

संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के भाषण के एक अंश को लेकर संसद से सड़क तक आंबेडकर पर राजनीतिक संग्राम नए साल में भी जारी रहेगा, क्योंकि मूल मकसद दलित वोट बैंक को रिझाना है। इसी वोट बैंक की लड़ाई के चलते भाजपा और कांग्रेस सांसदों में कथित धक्का-मुक्की की अशोभनीय स्थिति भी आ गई थी। अठ्ठारहवीं लोकसभा के चुनाव में भी आंबेडकर ‘गेम चेंजर’ मुद्दा साबित हो चुके हैं। भाजपा के कुछ अति उत्साही नेताओं ने लोकसभा चुनाव के लिए 400 पार का नारा देते हुए कहा था कि संविधान बदलने के लिए इतनी सीटें चाहिए। कांग्रेस समेत दो दर्जन दलों के विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को ऐसा चुनावी मुद्दा मिल गया, जो सबसे कारगर साबित हुआ। विपक्ष ने प्रचार किया कि भाजपा की 400 सीटें आ गईं तो वह बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान बदल देगी और संविधान प्रदत्त आरक्षण भी छीन लेगी। भाजपा की ज्यादा चुनाव प्रचार क्षमता विपक्ष के इस प्रचार की काट में खर्च हुई। फिर भी पिछली बार अकेले दम 303 सीटें जीतने वाली भाजपा जब 240 पर सिमट गई तो कई नेताओं ने स्वीकार किया कि 400 पार के नारे पर विपक्ष के जवाबी प्रचार ने नुकसान पहुंचाया।
चूंकि देशभर में लगभग 16 प्रतिशत दलित मतदाता हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब और हरियाणा समेत कई राज्यों में तो इनके बड़े हिस्से के समर्थन से ही चुनावी बाजी पलट जाती है। उत्तर प्रदेश में मायावती इसी की बदौलत चार बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहीं। बिहार में रामविलास पासवान का भी मुख्य जनाधार दलित वर्ग ही रहा। डॉ. आंबेडकर दलितों के सबसे बड़े सम्मान-प्रतीक हैं। दलित उन्हें मसीहा मानते हैं। इसलिए चुनाव-दर-चुनाव आंबेडकर के अनुयायियों को साधने की जंग किसी-न-किसी रूप में दिखती रहेगी। संसद में संग्राम के बाद दिसंबर के अंत में ही कांग्रेस देशभर में आंबेडकर सम्मान सप्ताह मना चुकी है। नए साल में भी वह इस मुद्दे को छोड़ेगी नहीं, क्योंकि यह उसके चुनावी पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य है। बेलगावी अधिवेशन के 100 साल पूरे होने पर वहां हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अध्यक्ष खरगे 2025 को कांग्रेस के सशक्तीकरण का वर्ष बता चुके हैं। दरअसल अल्पसंख्यकों के साथ दलित वर्ग भी कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा। इसमें पहली बड़ी सेंध बहुजन समाज पार्टी बनाकर कांशीराम ने लगाई। बाद में सत्ता की बिसात बिछाते हुए मायावती उसे पूरी तरह कांग्रेस से दूर ले गईं। एक से अधिक बार अपने समर्थन से मायावती को मुख्यमंत्री बनवाने वाली भाजपा के चुनावी एजेंडे पर दलित तभी से हैं। मायावती के सजातीय कोर वोट बैंक से इतर दलित वर्ग में सेंध लगाने में भाजपा सफल भी रही।
परंपरागत वोट बैंक समीकरण पूरी तरह गड़बड़ाए 2014 के लोकसभा चुनाव में और उसके बाद। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा की शहरी सवर्ण वर्ग की पार्टी की पुरानी छवि तेजी से टूटी। भाजपा के टिकट पर बड़ी संख्या में ओबीसी और दलित सांसद जीते। कांग्रेस के ऐतिहासिक चुनावी हार का बड़ा कारण भी यही रहा कि 1990 में मंडल-कमंडल धु्रवीकरण के बाद परंपरागत वोट बैंक ढहते चले गए। कहीं सपा-बसपा-राजद जैसे क्षेत्रीय दल उसके जनाधार पर खड़े हो गए तो दक्षिण भारत से इतर शेष देश में भाजपा उसके वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाने में सफल रही। ऐसे में कांग्रेस या तो भाजपा सरकार के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना के सहारे सत्ता में वापसी का इंतजार करे, जैसा कि 2004 में हुआ या फिर अपने खोये हुए वोट बैंक को वापस पाने की कवायद करे। 2004 की पुनरावृत्ति संभव नहीं लगती, क्योंकि तब तक कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में भाजपा सेंध नहीं लगा पाई थी। इसलिए कांग्रेस के पास परंपरागत वोट बैंक को वापस पाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं। जहां तक आंबेडकर के सम्मान और अपमान की बात है, तो इतिहास में सब दर्ज है। सच यही है कि आंबेडकर के सहारे चुनावी बिसात सभी दल बिछाते हैं, पर उनकी विचारधारा को ईमानदारी से कोई नहीं अपनाता।

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