ब्रह्म का अर्थ है निरन्तर वद्र्धनशील। ब्रह्म शब्द में वृद्धि और उद्यमन दोनों हैं। उद्यमन अर्थात् एक से अनेक होना, सूक्ष्म से स्थूल होना। उद्यमन के बिना वद्र्धन भी सम्भव नहीं है। शुद्ध वद्र्धन यान्त्रिक क्रिया भी हो सकती थी। उसमें नियमन, नियन्त्रण और व्यवस्था के लिए उद्यमन नामक संज्ञान को भी स्वीकारा गया। ब्रह्म के वद्र्धन को समझने के लिए मानव एक श्रेष्ठ उदाहरण है।
जगत के समान सूक्ष्म से स्थूल देह का उद्भव, एक से अनेक होने की प्रवृत्ति, एकदेशीय से सर्वदेशीय विस्तार के लिए गतिशीलता के साथ ही नियोजित व्यवस्था। जायते-जन्म लेना, गम्यते-गति करना, तायते-विस्तार पाना-यही एक बीज से होने वाली सृष्टि-बृंहण-वद्र्धन है। जगत् ही ब्रह्माण्ड है। ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ का सही अर्थ है कि जैसी वद्र्धनशीलता- बीज से वृक्ष बनाने वाली – जगत में है, वैसी ही मानव में है।
बीज के भीतर बन्द अनेकता की मुक्ति बृंहण है। इस बृंहण की सृष्टि करने वाला सृष्ट तत्त्व ब्रह्म है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म-जो जिस वस्तु को धारण-पोषण करता है, वह उस वस्तु का ब्रह्म कहा जाता है। जैसे पार्थिव पदार्थों का ब्रह्म पृथ्वी तथा तेजोमय पदार्थों का ब्रह्म सूर्य है।
पृथ्वी अपने आश्रित समस्त प्राणी जगत् को धारण करती है अत: पार्थिव पदार्थों का ब्रह्म है। देहधारियों का ब्रह्म आत्मा है क्योंकि आत्मा के देह से अलग होते ही वे निश्चेष्ट हो जाते हैं। चन्द्रमा, तारे एवं समस्त नक्षत्र सूर्य से ही रोशनी (प्रकाश) प्राप्त कर अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं।
सूर्य, पृथ्वी, आत्मा आदि सभी पदार्थों का ब्रह्म एक ही है, जो इस समस्त चराचर जगत् के कण-कण में विद्यमान है। नासदीय सूक्त कहता है कि ‘यह वही परम तत्त्व था, जिससे परे कुछ नहीं थाÓ-तस्माद्धान्यन्न पर: किंचनासीत्। इस सम्पूर्ण विश्व का जो एक मूलाधार है वह एकमात्र सर्वादि ब्रह्म है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है, वह ब्रह्म अद्वितीय है।
जिज्ञासा होती है कि क्या ब्रह्म की कोई आकृति विशेष है अथवा यह मात्र अनुभूति की वस्तु है? वस्तुत: ब्रह्म अग्नि प्राण है। यह हमारी रसोई या यज्ञों में दिखाई देने वाला स्थूल भौतिक अग्नि नहीं अपितु अति विरल, सूक्ष्म रूप वाला अग्नि है। भौतिक जगत् में जिसे एनर्जी कहा जाता है। पेट्रोल, कपूर इत्यादि में भी अग्नि विद्यमान है, किन्तु वहां अग्नि का प्रज्वलित स्वरूप नहीं रहता, इसको हम ईंधन कहते हैं।
ये अग्नि-प्राण प्रलय अवस्था में भी विद्यमान रहते हैं अर्थात् ब्रह्म शाश्वत तत्त्व है। प्रलयकाल जलमग्न अवस्था को कहते हैं। सामान्य जीवन में वर्षाकाल के समान समझा जा सकता है। वर्षा ऋतु के चार महीनों में कोई भी विवाहादि मांगलिक कार्य नहीं होते।
जनसाधारण की भाषा में कहें तो देव सो जाते हैं। यहां देवों के सोने का अभिप्राय है कि अग्नि प्राण दब गए। बादलों के कारण सूर्य का ताप पृथ्वी तक नहीं आ पाता। उसके परिणामस्वरूप वर्षा ऋतु में अनेक शारीरिक रोग बढऩे लगते हैं। वर्षाकाल की समाप्ति से जीवन पुन: सामान्य होने लगता है। तब कहते हैं- देवोत्थान हो गया। यहां जलाधिक्य से अग्नि प्राण नष्ट नहीं होते, अपितु मन्द हो जाते हैं।
इसी के समान सृष्टि की प्रलयावस्था भी जल की अधिकता के कारण होती है। यह सृष्टि प्रलयकाल में जलमग्न हो जाती है। पुन: अग्नि प्राणों के स्पन्दन, प्रस्फुटन से यह अपने प्रकट स्वरूप में आ जाती है। यह अग्नि प्राण ही ब्रह्म है। किन्तु सोम-समुद्र में दबा पड़ा है। यही चारों ओर से सोम ग्रहण करता है, अपने अग्नि स्वरूप का विस्तार करता है। अग्नि का बाहर विस्तार (गति) ही ब्रह्म का बृंहण है।
यह सम्पूर्ण सृष्टि एक ही मूल तत्त्व ब्रह्म से उत्पन्न हुई है, उसी में स्थित रहती है और अन्त में उसी में लीन हो जाती है। इसके दो रूप कहे हैं-कारणब्रह्म और कार्यब्रह्म। उक्थ, प्रतिष्ठा और साम का सम्मिलित रूप कारणब्रह्म है। जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ उठते, निकलते, प्रकट होते हैं, उसे उक्थ कहते हैं। मिट्टी घड़े का उक्थ है। पदार्थ उत्पन्न होकर जिसके आधार पर टिके रहते हैं, वह पदार्थ की प्रतिष्ठा कहलाती है।
मिट्टी ही घड़े की प्रतिष्ठा है। जगत् के सब तत्वों में समान भाव से रहने वाला तत्त्व साम कहलाता है। ब्रह्म से सभी पदार्थ निर्मित हुए हैं, वही उनकी प्रतिष्ठा है तथा वही समान भाव से सब जगह व्याप्त रहता है। अत: उक्थ, प्रतिष्ठा तथा साम लक्षणों वाला कारणब्रह्म ही सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी था।
संसार के सारे नामों का ब्रह्म वाक् है, सारे रूपों का ब्रह्म चक्षु है, सारे कर्मों का ब्रह्म आत्मा है। उक्थ से साम तक का दृश्य वस्तुरूप ब्रह्मभाव है। रूप चक्षु से ही उत्पन्न होते हैं, चक्षु ही उन्हें धारण करता है, अन्तत: चक्षु में ही लीन हो जाते हैं। सूर्य, अग्नि आदि के तैजस् प्राणों से बन्धकर उन पदार्थों के प्राण चक्षु से युक्त होकर रूप की उत्पत्ति करते हैं।
ब्रह्म समस्त पदार्थों की प्रतिष्ठा है एवं ब्रह्म ही सबसे प्रथमज है-‘ब्रह्मैवास्य सर्वस्य प्रतिष्ठा ब्रह्म वै सर्वस्य प्रथमजम्’-श्रुति। पदार्थों में जो ठहराव दिखाई देता है, उसी का नाम प्रतिष्ठा ब्रह्म है। यह प्रतिष्ठा ब्रह्म किसी पदार्थ में अति मात्रा में और किसी पदार्थ में अल्प मात्रा में रहता है। विद्युत, कर्पूर, मेघ आदि में ब्रह्म अल्पमात्रा में रहता है।
इन्द्र विक्षेपण शक्ति का नाम है। जिसमें इन्द्र की मात्रा कम होती है, उसमें प्रतिष्ठा अधिक होती है। इन्द्र की विक्षेपण-धर्म शक्ति को ‘शचि’ कहते हैं। इन्द्रशचि ही ईथर है और सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जो पदार्थ तुरन्त हवा में उड़ जाते हैं-स्प्रिट, तारपीन आदि, उनको इन्द्र उसी समय चूस लेता है। अत: उनकी प्रतिष्ठा नहीं हो पाती। ठोस पदार्थ अधिक काल तक रहते हैं। यही ब्रह्म प्रतिष्ठा है।
पदार्थों का यह अस्तित्व ही ब्रह्म है। स्थिति तत्त्व का, प्रतिष्ठा तत्त्व का नाम ‘ब्रह्माÓ है। गति तत्त्व का, विक्षेपण शक्ति का नाम ही इन्द्र है। आदान शक्ति विष्णु है। उस प्रतिष्ठा ब्रह्मा पर विष्णु और इन्द्र में स्पर्धा चला करती है। इन्द्र उच्छिष्ट को बाहर फेंकता रहता है। विष्णु बाहर से अन्न ला-लाकर उस कमी को पूरा किया करता है। अत: विष्णु को प्रतिष्ठा की भी प्रतिष्ठा कहा जाता है।
गति समष्टि ही स्थिति अथवा प्रतिष्ठा है। अर्थात् जब वस्तु एक साथ चारों ओर जाना चाहती है, वह किसी तरफ भी नहीं जा सकती। यही स्थिति है। इन्द्र ही सर्वत: गतिमान होकर विष्णु कहलाते हैं। यदि क्रिया के लिए कोई निष्क्रिय आलम्बन न हो तो क्रिया पैदा ही नहीं होती।
प्रतिष्ठा में आदान सोम का होता है और विसर्ग अग्नि का होता है। आदान-विसर्ग क्रिया के लिए आलम्बन की आवश्यकता रहती है। यदि बीज की प्रतिष्ठा न हो तो अंकुर नहीं निकलता। अंकुर जब प्रतिष्ठा ब्रह्म से ऊपर जाते-जाते रुक जाता है, तब उसकी गांठ हो जाती है। फिर उससे और शाखा निकलती है। हर नई चीज की उत्पत्ति के लिए प्रतिष्ठा का जन्म आवश्यक है।
क्रमश:
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उच्छिष्ट : खाए हुए अन्न का बचा हुआ भाग जिसे शरीर से बाहर किया जाता है।
शरीर ही ब्रह्मांड : बाहर प्रवृत्ति, भीतर निवृत्ति
शरीर ही ब्रह्मांड : कर्म ही प्रकृति की पहचान
शरीर ही ब्रह्माण्ड : मन चंचल-हृदय स्थिर है
शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्ति मुक्त होना ही लीनता
शरीर ही ब्रह्माण्ड : कर्म के पांच कारण
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