सोम: प्रथमो विविदे गंधर्वो विविद उत्तर:।
तृतीयोऽग्निस्ते पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:।। (ऋ. 10.85.40)
यह है भारत की आत्मा का स्वरूप। कौन हम, कौन तुम? कौन वर, कौन वधू! यह शरीर तो यात्रा-मार्ग है, माध्यम है विवाह का। हमारे तीन विवाह तो सूक्ष्म और अति सूक्ष्म आत्म धरातल पर होने के बाद ही मानव (स्थूल) शरीर धारण करते हैं। तब क्यों नहीं इस बार भी हमारा ही परस्पर विवाह होगा। इस रूप में कम से कम यह विवाह स्थूल शरीर से तो सम्बन्ध नहीं रखता। हम सब ब्रह्म की सन्तान हैं, ब्रह्म ही हैं। पिता ही पुत्र बनता है। विश्व भी ब्रह्म की सन्तान ही है। तभी तो वसुधैव कुटुम्बकम् है।
सृष्टि वितान में ब्रह्म अव्यय पुरुष रूप में स्वयंभू लोक में (सातवां), हम भूलोक (प्रथम) पर। कैसे पहुंचते है हम बीच के लोक पार करके। मंत्र यही कह रहा है। गीता में कृष्ण कहते हैं-ममैवांशो जीवलोके… अर्थात् मेरा ही अंश जीवलोक में है। इसके आरंभ की भी चर्चा करते हैं-मेरी योनि महद् ब्रह्म है, मैं उसमें गर्भ का स्थापन करता हूं-मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। गीता 14.3
क्षण-क्षण धर्मस्य ग्लानि
सप्तलोकों में मह:लोक मध्य में स्थित है। इसके ऊपर तीन लोक जन:, तप: और सत्यम् हैं। नीचे तीन लोक भू:, भुव: और स्व: हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव यही मह:लोक है। सूर्य के चारों ओर मह:लोक का सोम सूर्याग्नि में आहूत होकर जीव की प्रथम सृष्टि करता है।यहीं पर सत्व-रज-तम रूप प्रकृति, मन-प्राण-वाक् रूप आत्मा ब्रह्म-क्षत्र-विट् रूप वीर्य आदि आत्मा से युक्त हो जाते हैं। इतने सूक्ष्म भाव में पैदा होकर हम शनै: शनै: स्थूल होते होते यहां स्थूलतम हो जाते हैं। शरीर हमारी अभिव्यक्ति है।
चूंकि हमारा जन्म सूर्य से आगे होता है, वहां ऋत भाव में ही सृष्टि उत्पन्न होती है। वही मेरा मूल स्वरूप (ईश्वर अंश) है। वहां से षोडशकल आत्मा बिन्दुरूप में नीचे उतरता है। पर्जन्य में जलरूप बादल बनकर आकाश में विचरण करता है। वायु के माध्यम से बरसने का क्षेत्र तय होता है। ऋतभाव से चलकर बिन्दु (जल) बना। पृथ्वी की अग्नि में आहूत हुआ।
आवरण जो हटाए वह कर्म ही धर्म
पृथ्वी में पांचों महाभूत सम्मिलित रहते हैं। अन्न पैदा होता है। मैं अन्न की देह में बसता हूं। बिना जीव पड़े किसान फसल नहीं काटता। अन्न के दाने में आने से पहले मैं अन्तरिक्ष से गुजरता हूं। वहां मेरे स्वरूप में चार प्रकार के गुण सम्मिलित हो जाते हैंं-दधि-घृत-मधु और अमृत। इनसे ही अन्न का शरीर निर्मित होता है।अन्न पार्थिव स्थूल पदार्थ है। पेड़-पौधे-तृण-लता सभी पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं। मनुष्य अन्न का भोग करता है। जठराग्नि में जाता है और शरीर की सप्त धातुओं का निर्माण करता है। अन्तिम धातु शुक्र बनता है। इसमें चेतना का भाग रहता है- शुक्राणु रूप में। पृथ्वी ने जड़ शरीर बनाया। आगे चेतना का विकास है। शुक्राणु के भी शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा हैं। कौनसा-शुक्राणु कब रूपान्तरित होगा, यह भी तय होता है।
शुक्र का एक भाग रज से संयुक्त होकर नई सृष्टि का निर्माण करता है, वहीं दूसरा भाग पुरुष का ओज और मन बढ़ाता है। शुक्र स्वयं में एक ब्रह्माण्ड है। शुक्राणु का शुक्र ब्रह्म है। उसमें प्रकृति, अहंकृति, आकृति, वीर्य, पितर प्राण, हृदयस्थ तीनों अक्षर प्राण एवं पंच तन्मात्रा- पंच महाभूत सम्मिलित रहते हैं। मेरा यह सम्पूर्ण रूप रज में प्रविष्ट होकर संतान रूप में मेरी प्रतिष्ठा बनता है। यह सारा कार्य यांत्रिक-रासायनिक रूप में होता है। सब निर्जीव हैं। जड़ प्रकृति एक क्रम विशेष के रूप में आगे बढ़ती है।
धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम
कन्या के दाहिने हाथ को पकड़कर वर कहता है कि सौभाग्य के लिए तुम्हारे हाथ को पकड़ रहा हूं। अपने पति के साथ वृद्ध शरीर वाली होओ। भग, अर्यमा, सविता, इन्द्र ने तुमको मुझे गृहस्वामिनी बनाने के लिए दिया है। मैं विष्णु तुम लक्ष्मी हो। मैं साम तुम ऋक, मैं द्यौ तुम पृथ्वी हो। आओ, हम दोनों विवाह करें। साथ मिलकर सन्तान-शक्ति को धारण करें। वर कन्या से कहता है कि तुम इस प्रस्तर पर आरूढ़ होकर इसके समान दृढ़ संकल्पकर्ता बनो। इसके बाद सप्तपदी के मंत्रों का क्रम चलता है।ये सात पग क्रमश: 1 अन्न, 2 बल, 3 धन, 4 सुख, 5 पशु, 6 ऋतुएं तथा 7 मित्र भाव के लिए हैं। हे सखे! तुम सप्त लोकों में प्रसिद्ध होओ, मेरी अनुवर्तिनी बनो। विष्णु तुम्हें चलावें।इस प्रकार विवाह संस्कार से सुसंस्कृत नर-नारी के युग्म को भी अग्नि-सोम युग्म की तरह देखते हैं। ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ का सिद्धान्त इस शरीर पर भी लागू होता है। पुरुष (अव्यय) और प्रकृति (परा-अपरा) ही सूक्ष्म भाव में इस शरीर को चलाते हैं। शरीरों के विवाह शरीर समाप्ति पर समाप्त हो जाते हैं, तलाक के साथ टूट जाते हैं। आत्मा के विवाह सूक्ष्म शरीर के होते हैं। सात पीढिय़ों के पितृ प्राणों से होते हैं। पुरुष के शुक्र में सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं। विवाह के बाद पत्नी के प्राण भी सप्त पीढिय़ों से जुड़ जाते हैं। यही सात पीढिय़ों के अंश स्त्री शरीर में भावी पीढ़ी के जनक बनते हैं।
अत: आगे भी सात पीढिय़ों का अंश स्त्री शरीर में रहता है। स्त्री नहीं रहती (मृत्यु उपरान्त) तो भी पुरुष के आत्मा में वह साथ रहती है। किन्तु पुरुष की मृत्यु के पश्चात स्त्री देह में पति का आत्मा नहीं रहता। अत: भारतीय महिलाएं सारे व्रत-उपवास-अनुष्ठान पति की लम्बी आयु के लिए ही करती हैं, ताकि सुहागन के रूप में ही देह छूट सके।
क्रमश: