व्यक्ति को जैसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, उसके मन में कई तरह के कार्य करने की प्रवृत्तियां उठने लगती हैं। व्यक्ति के बाहरी स्वरूप में अनेक परिवर्तन, अनेक फैलाव दिखाई पडऩे लग जाते हैं। विद्या के कारण प्रसार और अविद्या के कारण संकोच की भूमिका प्रभावी रहती है।
संकोच का अर्थ है-व्यक्ति लïक्ष्मी को बांधे रखने का प्रयास करता है। अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग करता है। उसे बचाए रखने के प्रयास में या बढ़ाने के प्रयास में जुट जाता है। समाज में धन के अहंकार की तुष्टिï के मार्ग ढूंढ़ता रहता है। व्यसन आदि में उसका प्रवेश होने लगता है।
वृत्ति में जब अविद्या के आवरण जुड़ जाते हैं तब व्यक्ति केवल बाहर की ओर भागता है। भीतर का सब-कुछ ढका रहता है। व्यक्ति खुद को देख नहीं पाता। हर वृत्ति के साथ मन की चंचलता बढ़ती जाती है। शरीर और इन्द्रियां स्थिर भाव में आ ही नहीं पातीं। इस कारण सूक्ष्म शरीर भी चंचल बना रहता है।
अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के रसायनों का सन्तुलन बिगड़ता जाता है। वृत्तियों के स्पन्दन एक ही दिशा में होते हैं। आदान-प्रदान (स्थूल और कारण शरीर के बीच) अचेतन रूप लेकर रह जाता है। शरीर समय से पहले थक जाता है, रोगग्रस्त हो जाता हैै। शैया पकड़ लेता है। तब मन में उठने वाले नए स्पन्दनों का क्या होगा? नई इच्छाओं की पूर्ति कैसे होगी।
शरीर की गतिविधियों का रुक जाना ही सूक्ष्म और कारण शरीर के लिए बड़ी सजा का काम करता है। भीतर उठने वाली सारी ऊर्जाएं और सारे स्पन्दन व्यक्ति को भीतर ही तोडऩे लग जाते हैं। बाहर निकलने का द्वार तो बन्द हो गया। चंचलता समाप्त नहीं होती। कृष्ण कह रहे हैं-
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। (गीता 16.7)
अर्थात्-आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते और उनमें पवित्रता, शुद्धि और अशुद्धि का विवेक और सत्य की स्थिति नहीं रहती।
यह वृत्ति ही ज्ञान का आश्रय लेकर निवृत्ति की ओर अग्रसर करती है। चंचलता का समाधान करती है। स्थूल-सूक्ष्म और कारण शरीर में एक सन्तुलन बनाए रखती है। तब व्यक्ति का ध्यान शरीर के साथ-साथ बुद्धि, मन और आत्मा की वृत्तियों की ओर भी जाने लगता है। चित्तवृत्ति और मनोवृत्ति का पोषण होने लगता है। अच्छे आचरण और व्यवहार की यही महत्ता है। अनेक धर्मों ने आचार: प्रथमो धर्म: कहा है।
गीता ने कर्मों को वैज्ञानिक रूप से वर्णों का आधार भी दिया है। पुरुषार्थ चतुष्टय, आश्रम व्यवस्था, विद्या-अविद्या के कार्यों, प्रभावों का स्पष्ट निरूपण किया है। माया और प्रकृति की व्याख्या, जीवन में उनका स्वरूप तथा कर्म फलों को प्रभावित करने की भूमिका का चित्रण करते हुए, यज्ञ-दान-तप पर भी इनका साम्राज्य बताया है।
गीता अव्यय को ही सर्वेसर्वा मानती है। यद्यपि अव्यय असंग है-उदासीन है, जैसा कि गीता कहती है-”उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कम्र्मसु’ अर्थात् अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मेरे को वे कर्म नहीं बांधते। (गीता 9.9) तथापि अव्यय को सर्वथा सृष्टि से बाहर नहीं निकाला जा सकता। अव्यय असंग है-फिर भी गीता ने स्वयं उसे प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् अर्थात् उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (गीता 9.18) सृष्टि-प्रवत्र्तक कहा है।
अव्यय मन जब सृष्टि से विरक्त होता है, तब कछुए की तरह अपनी ज्ञानेन्द्रियों को भीतर समेटने लगता है। प्राण वाक् सिमटकर मन के साथ एक हो जाते हैं। प्रज्ञा के जागरण के साथ ही विज्ञानमय कोश क्रियाशील हो जाता है। मन, आनन्दमय और विज्ञानमय कोश की ओर आमुख हो जाता है।
कठोपनिषत् 2/4/1 में कहा गया है कि स्वयंभू स्वरूप इस अव्यय पुरुष ने सबकी इन्द्रियों को बाहर की तरफ दौडऩे वाली बनाया है। यही कारण है कि सब बाहर देखते हैं। अपनी अन्तरात्मा में देखने का कोई यत्न नहीं करता। कोई धीर पुरुष सारी इन्द्रियों की बाहर की प्रवृत्तियों को रोक कर यदि अन्तरात्मा में देखता है उसको आत्मतत्व का लाभ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने आत्म में बुद्धियोग कर लेने से मृत्यु चक्र से विमुक्त होकर परमानन्द में प्रतिष्ठित हो जाता है।
ब्राह्मणोपनिषद् में उल्लेख आता है कि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म ज्ञान की जिज्ञासा से सूर्य से प्रार्थना की तब सूर्य ने याज्ञवल्क्य को कहा कि सभी जीवों में जो आत्मा विद्यमान हैं उसी को ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। आत्मा ज्योतिर्मय है। इसका ज्ञान होना सामन्यजन के वश की बात नहीं है। इसका ज्ञान तो तत्त्ववेत्ता के सान्निध्य में ही अंतर्मुखी होने पर प्राप्त हो पाता है।
जब ब्रह्मवेत्ता को आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब हृदय-गुहा में आत्मा का ध्यान करते-करते साधक का मन एकाग्र हो जाता है। धीरे-धीरे जब वह अंतर्मुखी होने लगता है तब उसे अनेक रूप में प्रकाशवान परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं।
इससे भी आगे जब ध्यान की स्थिति परिपक्व हो जाती है तब कहीं जाकर उसे अपने ही शरीर में होने वाले प्रणव नाद का सत्य स्वरूप दिखाई देने लगता है। वही परम ज्योति है। जो मनुष्य ऐसे परमात्मा का दर्शन कर लेता है वह जन्म-मरण से मुक्त होकर ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। गीता में कृष्ण कह रहे हैं कि ”ब्रह्मभूत होकर प्रसन्न आत्मा वाला न किसी का अनुशोचन करता है, न कुछ चाहता है वह सभी भूतों में समान भाव रखता हुआ मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है’-
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। (गीता 18.54)
आज जीवन का स्वरूप विकृति मार्ग पर निकल पड़ा है। वृत्तियां स्थूल शरीर पर केन्द्रित हैं। जीवन में आत्मा की चर्चा का लेशमात्र भाव नहीं रह गया है। व्यक्ति माया के व्यूह में फंस कर अपने आत्मा से दूर होता जा रहा है। कहीं अथाह सागर में जाकर खो जाएगा जिस प्रकार नदी का जल, प्रवाह के कारण उद्गम से दूर होता जाता है। आत्मा अज्ञानवश अथवा माया से भ्रमित होकर भोग योनियों में ही पशु की तरह भटकता रहता है। आहार-निद्रा-भय-मैथुन ही उसके अन्तिम पड़ाव हंै। बिना धर्म के, अर्थ और काम के सहारे आत्मा मोक्ष को कैसे प्राप्त हो सकता है!
क्रमश:
शरीर ही ब्रह्मांड : कर्म ही प्रकृति की पहचान
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