scriptधरतीपुत्रों का अपमान | gulab kothari article 6 august 2023 Insult to farmers | Patrika News
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धरतीपुत्रों का अपमान

Gulab Kothari Article : देश-प्रदेश के बिगड़ते हालात पर पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – धरतीपुत्रों का अपमान

Aug 07, 2023 / 12:14 pm

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

Gulab Kothari Article धरतीपुत्रों का अपमान: हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। आधा देश गरीब है। इसलिए नहीं कि अनाज की कमी है, बल्कि इसलिए कि प्रशासन बेदर्द है। इंस्टीट्यूट ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स की वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सालाना दो करोड़ दस लाख मीट्रिक टन अनाज बर्बाद होता है। यह बर्बादी धरती का और किसान के पसीने का भी अपमान है। ऐसा करना वर्षों से हमारे अधिकारियों की शान रहा है। इसी उपलब्धि के लिए इन ‘भले लोगों’ को पुरस्कृत किया जाता है। आप अंग्रेजों को बड़ा शत्रु कहेंगे या इनको? माना जाता है कि देश में कुल पैदावार की 15 प्रतिशत बर्बादी होती है। इसमें से 4-6 प्रतिशत तक की बर्बादी केवल भण्डारण के अभाव में होती है।


भंडारण की कमी तो समस्या है ही, बड़ा संकट समुचित तरह से भंडारण नहीं होने से खाद्यान्न के नष्ट होने का है। भारतीय खाद्य निगम के पास भंंडारण के लिए पारंपरिक गोदाम हैं जहां खाद्यान्नों को बोरियों में रखा जाता है। लेकिन खरीद जब चरम पर होती है तो उस दौरान कवर व प्लिंथ सुविधा का इस्तेमाल भी होता है। चिंता इसी बात की है कि बड़ी मात्रा में किसान की फसल तो बरसात व अन्य कारणों से उसके खेत पर ही बर्बाद हो जाती है। उसके पास तो भंडारण की सुविधा भी नहीं होती।

क्या यह विभाग के कुशल अधिकारियों की ‘शौर्यगाथा’ से कम है कि वे साल-दर-साल कभी बुवाई का रकबा बढ़ाते हैं, कभी उन्नत बीज लाते हैं। लक्ष्य पूर्ति का ढोल बजाते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद भी करते हैं और अनाज को वर्षा में सडऩे के लिए खुले में डाल देते हैं। वे भूल जाते हैं कि खरीद का धन जनता का धन है और उनको वेतन भी जनता ही देती है।

जनता के धन से परिवार को पालेंगे और जनता को ही खाक में मिलाने का काम करेंगे! ऐसे जनता के नौकरों को क्या कहना चाहिए? अकेले राजस्थान और मध्यप्रदेश में प्रतिवर्ष हजारों मीट्रिक टन गेहूं सड़ता है। वर्षों से सड़ता आ रहा है। क्या हर जिले में प्रतिवर्ष एक गोदाम नया नहीं बन सकता है। अभी तो लगता है कि उनका पेट ही गोदाम है, जहां चूहे भी नहीं खा सकते।

राजस्थान में 10.6 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होता है। हर साल बुवाई का क्षेत्र बढ़ता भी है लेकिन भंडारण की कमी के कारण गेहूं की बर्बादी के किस्से कम नहीं होते। कागजों में खाद्यान्न की भंडारण क्षमता भी पर्याप्त होने के दावे किए जाते हैं फिर भी गेहूं के भीगने और सडऩें की खबरें आती ही रहती है। जयपुर, सीकर, जोधपुर व नागौर जैसे प्रमुख गेहूं उत्पादक जिलों में किसान हैरान-परेशान इसलिए भी रहता है क्योंकि वह खेतों में अपनी पैदावार को ज्यादा समय नहीं रख सकता।

मध्यप्रदेश जैसे राज्य में तो गेहूं का सालाना उत्पादन राजस्थान से भी ज्यादा 13.3 मिलियन टन रहता है। वहां गेहूं की खपत भी खूब है। लेकिन भंडारण की कमियों के कारण गेहूं खराब होने का संकट यहां भी खूब है। हालांकि मध्यप्रदेश वेयर हाउसिंह कॉरपोरेशन के रिकार्ड के मुताबिक प्रदेश में सहकारी समितियों के माध्यम से ग्यारह लाख मीट्रिक टन गेहूं का भंडारण किया जाता है।

छत्तीसगढ़ को तो धान का कटोरा कहते हैं। यहां गेहूं कम और चावल का उत्पादन खूब होता है। छत्तीसगढ़ में खरीफ और रबी दोनों मौसम में चावल का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता है। यहां गेहूं की सरकारी खरीदी नहीं होती है। करीब 17 लाख मीट्रिक टन चावल की खपत होती है। मोटे अनुमान के अनुसार छत्तीसगढ़ में सेंट्रल पूल में करीब 61 लाख मीट्रिक टन चावल जमा किया है। एक दौर था जब छत्तीसगढ़ में हर साल 10 से 12 लाख क्विंटल धान बारिश में खराब हो जाता था। अब भी 3 से 4 लाख क्विंटल खराब हो ही जाता है।

आज यह देश इन अधिकारियों की कृपा से अनाज (गेहूं) के अभाव से जूझ रहा है। पिछले दिनों ही खबर थी कि भारत, रूस से 90 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदने जा रहा है। क्या रूस से यह मुफ्त मिलेगा या जनता की ही जेब कटेेगी। एक आधिकारिक अनुमान के अनुसार इस वर्ष लगभग 330 मिलियन मीट्रिक टन खाद्यान्न पैदावार की उम्मीद है। जबकि भंडारण क्षमता 44 प्रतिशत की ही है। उसमें भी कुछ शातिर अफसर समय देखकर कुछ क्षमता को दवा और खाद्य सामग्री के लिए आवंटित कर देते हैं।

उपभोक्ता मामले विभाग के मूल्य निगरानी अनुभाग के अनुसार 10 जून को देश में गेहूं का औसत थोक दाम करीब 2663 रुपए प्रति क्विण्टल तक पहुंच गया था। अधिकतम दाम से 4001 रुपए तक था। जहां तक गेहूं के स्टॉक का सवाल है-मानसून पूर्व १ जुलाई २०२३ को केन्द्रीय पूल में कुल मिलाकर गेहूं का स्टॉक 301.45 लाख मीट्रिक टन था। यह औसत स्टॉक 275.80 लाख मीट्रिक टन से भी अधिक था। यही स्टॉक एक अप्रेल को पिछले 6 वर्षों का न्यूनतम (लक्ष्य से 79 लाख मैट्रिक टन कम) था। आंकड़ों की जादूगरी भी सरकार की दक्षता का प्रमाण है।

वर्ष 2022 में का गेहूं उत्पादन 107.7 मिलियन मीट्रिक टन था जो इस वर्ष बढ़कर 112.7 मिलियन मीट्रिक हो गया। इसके विपरीत न्यूज एजेंसी रॉयटर्स का दावा है कि वास्तविक उत्पादन सरकारी अनुमान से 10 प्रतिशत कम हुआ है। यानी 10 प्रतिशत खरीद बेनामी दिखाई गई है? खैर, जो भी हो, देश में उत्पादन-खपत लगभग बराबर है। आंकड़ों का हेर-फेर और अधिकारियों की लापरवाही, जानवरों द्वारा खाए जाने जैसे कारणों से ही लाखों टन का भार जनता पर पड़ता है, तो धिक्कार है अफसरों की होशियारी को।

यदि ये मन से भारतीय होते तो इनको अन्न-ब्रह्म का अनुमान लग जाता। ‘जैसा खावे अन्न-वैसा होवे मन’ जैसी साधारण दृष्टि इन ज्ञान-पण्डितों के पास नहीं है। क्या यह कहना गलत होगा कि आयात का धन इनसे ही वसूल किया जाए?

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