scriptबुद्धि सारथी रहे, रथी न बने | Gulab Kothari Article 30 June 2023 Wisdom should be the charioteer, do | Patrika News
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बुद्धि सारथी रहे, रथी न बने

Gulab Kothari Article : समाज में शिक्षा की महत्ता पर केंद्रित पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – बुद्धि सारथी रहे, रथी न बने

Jun 30, 2023 / 07:59 am

Gulab Kothari

Gulab Kothari Article

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Gulab Kothari Article : आज हमारी शिक्षा प्रणाली का हाल यह है कि हम पढ़ रहे हैं लेकिन गुण नहीं रहे। शिक्षा का क्षेत्र जीवात्मा की बुद्धि का है जो शरीर के बाहरी विषयों पर अधिक प्रभावी रहती है। हमारे पास शरीर और मन भी आत्मा के सहायक हैं। आत्मा हमारा मूल स्वरूप है। हम शरीर नहीं, बुद्धि नहीं, मन नहीं बल्कि आत्मा हैं। लेकिन चार संस्थाओं की देह में केवल बुद्धि ही जीने के काम आ रही है। शेष तीनों तो सुप्त और प्रकृति से दूर हैं। मन(इच्छा) को दबाने का प्रयास भी यही बुद्धि करवाती है। इच्छाओं को दबाना भी भावी जीवन को खतरे में डालना ही है। इच्छा को पूरी करो, टाल दो या दबा दो, और क्या? शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है कि जीव मनमर्जी से, बिना स्वभाव का आकलन किए नया यात्रा मार्ग चुन लेता है जो प्रकृति के मार्ग से भिन्न होता है।


धन कमाने और भौतिक सुख- सुविधाएं बटोराना जब शिक्षा का लक्ष्य बन रहा हो तो यह बुद्धि का अहंकार प्रधान निर्णय ही होता है। प्रकृति प्रधान नहीं। इच्छा मन में हो और बुद्धि निर्णय करे, दिशाएं अलग-अलग हों तो शांति का लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है? मानव को मन के कारण ही मानव कहा जाता है। वही मनस्वी बनता है। उसी के कारण बुद्धि भी प्रज्ञा के रूप में संकलित होती है।

जीवन, मन के संकल्पों, सपनों, सुख-दु:ख में भागीदारी व आस्था जैसे शब्दों के सहारे गहरे में उतरने का नाम है। स्वयं के लिए तो पशु भी जीता है। बुद्धि को सीमा और क्षमता से आगे ले जाना तो सहज है पर उसकी उष्णता को पचा पाना सहज नहीं है, जला देती है। मन की शीतलता चाहिए। उमा सहित शिव: कहा है।

वैज्ञानिक रूप तो यह है कि प्रत्येक आत्मा अपने साथ कर्म रूप भी लेकर पैदा होता है जिसे ‘वीर्य’ कहते हैं। इसे ब्रह्म-क्षत्र-विट् वीर्य के रूप में जाना जाता है। इसे आत्मा से पृथक नहीं कर सकते, न ही इसे ‘जाति’ शब्द से जोड़ा जा सकता है। जाति कर्मानुसार होती है।


‘चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:’ (गीता 4 /13 )
कृष्ण कह रहे हैं- ‘वर्णों का निर्माण मैं करता हूं।’ बुद्धिमान लोग गीता तो पढ़ते हैं, किन्तु लिखे हुए को स्वीकारना नहीं चाहते। यही बुद्धिविलास समाज में ताण्डव कर रहा है जिसमें मां-बाप का अहंकार अपनी संतान को कुछ बनाना चाहता है तो दूसरी ओर उसका वर्ण कुछ अन्य दिशा में जाना चाहता है। वहीं प्रारब्ध तीसरी दिशा में ले जाना चाहता है। जबकि जीवन व्यक्ति को भ्रमित रखता है और समय के साथ प्रकृति स्वयं उसके कर्मों को बदलती जाती है।

मन में कामनाएं उठती हैं- दबती जाती हैं। बुद्धि भी संवेदनाहीन होती है। संवेदना, प्रेम, करुणा, वात्सल्य ये सब तो मन के विषय हैं, बुद्धि के नहीं। तब बुद्धिमान के जीवन में रस-माधुर्य कहां से आएगा? वह अपने स्वार्थ के लिए किसी का भी हित-अहित कर सकता है। यही विज्ञान का क्षेत्र है। विज्ञान ने ‘अणुÓ ऊर्जा को खोज निकाला। अब व्यक्ति तय करेगा कि इसमें विद्युत पैदा करनी है अथवा मानवता के लिए त्रासदी। मानव जन्म से तमोगुणी है इसलिए ही उसकी बुद्धि संहार की ओर दौड़ती है। जिसका मन संवेदनशील है वही त्रासदी को रोकने में रुचि लेगा।

आज विज्ञान, बुद्धि का पर्याय बन गया है। शिक्षा का लक्ष्य भी बुद्धि विकास ही है। धर्म-शासन-प्रशासन-न्यायप्रणाली इत्यादि सभी क्षेत्र बुद्धि के अधीन हो गए। बुद्धि का कार्य है- मन की इच्छाओं की पूर्ति का कर्म तय करना। निर्णय करना कि क्या करें, क्या न करें, कब करें या करें ही नहीं। बुद्धि एक सलाहकार है, त्रिगुण से प्रभावित भी है। अहंकृति के साथ रहती है। दोनों का जनक सूर्य है। सूर्य ही हमारा आत्मा है। अत: बुद्धि में उष्णता भी रहती है। तोडऩे का कार्य (विशकलन) अग्नि का होता ही है ।

आत्मा ब्रह्म है, माया के साथ है। अव्यय पुरुष रूप है। हृदय अक्षर है -ब्रह्मा, विष्णु, महेश- की प्रतिष्ठा है। आत्मा का स्वरूप-सृष्टि में-मन, प्राण, वाक् है। मन ब्रह्मा का स्थान है। हृदय प्राणात्मक है। वाक् स्थूल शरीर है। मन और प्राण को क्रमश: कारण और सूक्ष्म शरीर भी कह सकते हैं। कारण शरीर का आधार बल है, सूक्ष्म शरीर शक्ति का क्षेत्र है, स्थूल क्रियात्मक शरीर है।

यही माया के तीन रूप हैं जो ब्रह्म के लिए कार्यरत रहते हैं। बुद्धि कारण शरीर में ‘धीÓ रूप है, सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा है, स्थूल शरीर में त्रिगुणात्मक बुद्धि है। मूल में बुद्धि भी पैदा होती है महद् तत्व से, अहंकार से, सूर्य से। बुद्धि मार्गदर्शक है, प्रकाश स्तंभ है। ब्रह्म की यात्रा में प्रकाश उपलब्ध कराती है। स्वयं कर्ता नहीं है।


आज कर्म, बुद्धि आधारित हो गए। कर्म का आधार मन की इच्छा होती है। बुद्धि, इच्छा पूरी करने में सलाहकार होती है, तब ही प्राण गतिमान होते हैं। प्रश्न यह है कि तीन शरीरों के मन भी तीन और बुद्धि के धरातल भी तीन तो क्रिया के लिए शरीर एक क्योंï? कारण, शरीर में ईश्वरीय इच्छा रहती है। इसी को प्रारब्ध कहते हैं। प्रकृति का सारा लेखा-जोखा, पिछले संचित कर्म, इस जन्म में भोगने वाले कर्म कारण शरीर में ही रहते हैं।

काल के अनुसार फल भोगने के लिए ईश्वरीय इच्छा इसी मन में उठती है। इस इच्छा को पूरी होने से कोई नहीं रोक सकता। इस इच्छापूर्ति के लिए ही हम जन्मते हैं। इस इच्छा की पूर्ति में बुद्धि का योगदान, काल का संयोजन है। इस इच्छापूर्ति में अन्य जीवात्माओं की इच्छापूर्ति भी जुड़ सकती है।

जीवन का मिलना-बिछुडऩा, आधि-व्याधि-उपाधि, यश-कीर्ति आदि इसके मुख्य विषय हैं। आत्मा को द्वा-सुपर्णा (दो सोने के पंख वाला) कहा है। एक पंख ईश्वरात्मा साक्षी भाव है, दूसरा जीवात्मा प्रकृति का अंश है-क्षेत्रज्ञ है। ईश्वरात्मा-कारण शरीर- सूत्रात्मा से जुड़ा हैं। शरीर क्षेत्र है।

मानव के मन में (जीवात्मा रूप) स्वयं की भी स्वतंत्र इच्छा पैदा होती है। मन त्रिगुणी है (सत्व-रज-तम), इन्द्रियों से हर क्षण अनेक विषय ग्रहण करता है। चलायमान रहता है, हर क्षण बदलता रहता है। ‘नवो नवो भवति जायमान:’ कहा है। इस मन की भी अपनी शैली है, वातावरण है, सपने हैं। ये ही उसके भविष्य (अगले जन्मों तक का) का निर्माण करते हैं।

इच्छा सूक्ष्म स्तर है-अदृश्य है- निष्कर्म है। न मन में गति है, न ही इच्छा में। इच्छा भी ईश्वरीय अंश है। यहां मन और बुद्धि दोनों त्रिगुणात्मक है, प्रकृति के नियंत्रण में हैं। अत: बुद्धि उन्हीं कामनाओं को प्रकाशित करेगी, जो प्रारब्ध कर्मों से जुड़ीं हैं। उन्हीं कामनाओं को पूर्ण करने का संकेत भी देगी तथा जीव की स्वतंत्र कामनाओं की पूर्ति में भागीदारी करेगी। जीवात्मा की कामना प्रकृति के साथ चले, यह आवश्यक नहीं है। यहां बुद्धि अहंकार भी प्रभावी हो जाता है। यहीं जीव की नई योनियों के बीज बोये जाते हैं।

मन ही जीवन है। ईश्वर की प्रतिष्ठा मन में है, बुद्धि में नहीं। इस शरीर में ईश्वर रूप आत्मा को जीना है। शरीर और बुद्धि साधन हैं, साध्य नहीं है। शिक्षा ने दोनों को साध्य बना दिया है। दोनों स्वरूप से ही जड़ हैं। जब तक इन दोनों के साथ मन और आत्मा को शिक्षा में नहीं जोड़ा जाएगा, मानवीय समाज टूटता ही जाएगा। जीवन से ईश्वर की झलक लुप्त हो जाएगी। कोई शिक्षा नीति मानव के लिए हितकर नहीं होगी।

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