राजधानी जयपुर में आज दोनों नगर निगमों में मेयर के पद पर महिलाएं आसीन हंै। जैसा जयपुर है वही शायद इनके लिए सौंदर्य की परिभाषा है। धिक्कार है! बरसात आती है और जयपुर शहर हर साल नरक बन जाता है। जल भराव, अवरुद्ध सीवर लाइनें, धंसी हुई सड़कें और यातायात जाम।
ऐसे में बुजुर्गों- बच्चों व बीमारों की परेशानी और बढ़ जाती हैं। इनके लिए तो स्कूली बच्चों का दर्द भी मातृत्व से शून्य है। फिर दोनों किसको राजी करने के लिए पदासीन हैं? हाल यह है कि नाले पूरे साल साफ नहीं होते। साफ होते भी हैं तो बरसात से ठीक पहले।
नतीजा यह कि पानी के बहाव के साथ नाले का सारा मलबा फिर सड़क पर। पूरा शहर सड़ांध मारता रहता है। न जाने अधिकारियों के नाक कौनसी मिट्टी के बने हैं और खाल किसकी ओढ़े रहते हैं। सफाई हो या न हो, पूरे शहर में अतिक्रमण कराने का ठेका इन अफसरों के पास जरूर है। तो फिर पानी हर साल अपनी निकासी का मार्ग क्यों नहीं बदले?
कुछ ही वर्ष पहले भी भारी बरसात की वजह से जयपुर की कई बस्तियों में बहकर आई मिट्टी छह-सात फीट तक जमा हो गई थी। घर- वाहन मिट्टी में दब गए थे। कोई मरे भला आज के इन ‘अंग्रेजों’ के दिल तो पत्थर हो चुके हैं। सूचना भर जारी कर देते हैं कि आज बाढ़ से इतने मरे और घर जाकर सो जाते हैं। जैसे जिम्मेदारों के लिए तो यह सब दैनिकचर्या का हिस्सा ही बन गया हो।
इंदौर शहर सफाई में देश में प्रथम और जयपुर….? यहां तो अफसर बरसों से पानी के निकास की व्यवस्था ही नहीं समझ पाए। निचले स्तर के कर्मचारी जितनी भी समझ नहीं है क्या? समाधान के नाम पर अरबों रुपए डकार गए इन वर्षों में। किसी की नाक ही नहीं कटी। सीवर की गंदगी का तो हाल यह है कि जलमहल के सौंदर्य में ‘चार चांदÓ लगा रही है।
शहर की हर गली में नालियां सड़क से चार-पांच फीट तक नीचे चली गईं। इससे बरसाती पानी घरों में पानी भर रहा है। किसी को दिक्कत होती हो तो हो, इनकी बला से। लग तो यही रहा है कि इनके ऊपर या तो कोई तंत्र है ही नहीं, यदि है तो वह भी भ्रष्ट है या फिर अनाड़ी। कम से कम संवेदनहीन तो है ही। इतना बड़ा अपराध कर रहे हैं और मौन बैठे हैं। लोकतंत्र में क्या ढीठता की सीमा नहीं लांघ रहे?
कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में लिखा है- ‘अविश्रमोऽयं लोकतन्त्राधिकार:।’ अर्थात लोकतंत्र का दायित्व ऐसा है कि उसमें विश्राम नहीं मिल सकता। लेकिन यहां बरसात के दौर में दिल दहलाने वाली तस्वीरें और मौत से संघर्ष के दृश्यों को देखकर भी अधिकारी-नेता ‘दृष्टा’ बने रहते हैं, ऊपर वाले की तरह। मंत्रियों-नेताओं पर इतने आरोप और सब चिकने घड़े! क्या ये देशद्रोही की श्रेणी में नहीं आते? पेेट भरने के लिए माटी के प्रति अपना धर्म ही दफन कर बैठे।
क्या एक भी इंजीनियर, एक भी मेयर, आयुक्त-नेता इन पिचहत्तर वर्षों में इतना संकल्पवान नहीं हुआ जो शहर को स्वच्छ रखना जानता हो। चिंता यह है कि अफसर-कार्मिकों का इतना बड़ा विभाग जनता की दैनिक समस्याओं का निराकरण ही नहीं कर पाता। हर साल की तरह बरसात में सारा मलबा फिर नालियों में चातुर्मास मनाएगा।
चारों ओर अतिक्रमण, अवैध कब्जे हो रहे हैं। राजस्थान का हर गांव-शहर लुट रहा है और अधिकारी, अपराधियों का साथ देकर जेबें भर रहे हैं। तब जनता मौन क्यों है? ऐसे अफसरों को कौनसा पदक दिया जाना चाहिए? वर्ष 1981 की भयावह बाढ़ के बाद से अब तक कितनी बार जयपुर शहर ने बाढ़ के हालात झेले हैं।
यहां तो बाढ़ राहत के कार्य भी बाढ़ आने के बाद ही चर्चा में आते हैं। आग लगने पर कुआं खोदने में ही सारा बजट खप जाता है। वर्ष 2006 में बाड़मेर के कवास और मलवा गांवों की तबाही का मंजर भीषण था। कवास के चारों तरफ करीब पांच किलोमीटर परिधि में जल भराव करीब डेढ़ साल तक बना रहा।
कवास और मलवा में 111 लोगों की मौत हुई और 738 घर डूब गए थे। बाढ़ से बेघर हुए लोगों को न्यू कवास में बसाया गया, लेकिन ये लोग वापस पुराने कवास में ही बस गए है। सत्रह साल बाद भी यहां बाढ़ का खतरा खत्म नहीं हुआ क्योंकि पानी के बहाव का रास्ता अभी जिंदा है।
मध्यप्रदेश चले जाइए। जयपुर जैसा ही हाल देश के सबसे साफ शहर इंदौर के साथ ही भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर में भी है। सड़कें बना दी हैं, मगर सीवेज और स्टार्मवाटर लाइन नदारद हैं। इन शहरों के कई इलाके ऐसे हैं, जहां दो इंच बारिश होते ही लोग कामना करने लगते हैं कि बस बहुत हुआ, अब तो थम जाए।
जहां स्मार्ट सिटी के नाम पर करोड़ों लगाए, वे भी पानी में ही गए। पॉश इलाके और मुख्य बाजारों में भी बहाव मार्ग अतिक्रमण का शिकार है। अफसरों को सब पता है पर मिलीभगत जारी है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तो नगर निगम ने अमृत मिशन के तहत पाइप लाइनें बिछाने के लिए बरसात के मौसम को ही चुन लिया।
शहर के नालों की सफाई तक नहीं हुई। हालत यह है कि दुकानों-मकानों के बाहर गड्ढों में पानी भरा नजर आता है। शहर के कई मोहल्ले मामूली बरसात में तालाब की शक्ल ले लेते हैं। कहने को तो रायपुर स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में शामिल है पर जिम्मेदारों को जनता की समस्याओं की परवाह कहां? यहीं क्यों, आज भी उत्तराखण्ड की बाढ़ केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाती है। हिमाचल प्रदेश भी दरक रहा है।
नगर निकायों के साथ सार्वजनिक निर्माण विभाग की सड़कों का भी सब जगह यही हाल है। दोनों विभाग जनता के लिए नासूर बन मौत के प्रतिनिधि हो गए। लोकतंत्र में बेचारे अफसर और कर ही क्या सकते हैं? इन्हें ‘ऊपर तक’ पहुंचाना भी पड़ता है। अब तो नीचे वाले भी कपड़े फाडऩे लगे हैं।
शायद जनता इनकी करतूतें देखने के लिए ही इनको चुनती है। यक्ष प्रश्न यह है कि राजस्थान की राजधानी में ही जहां सरकार बैठी हो वहां लोगों को पीने का साफ पानी नसीब नहीं हो, बरसाती नालों की सफाई नहीं होती हो, सड़कें वाहनों को लेकर धंस रही हो,यातायात हर कभी जाम होता रहता हो और इन सब से भी ऊपर मंत्रियों- अफसरों के भ्रष्टाचार के चर्चे आम हों तो सरकार होने का अर्थ ही क्या?
यह जिम्मा युवाओं को ही उठाना होगा। राजनीति से परे सरकार में घुसे ऐसे कंटकों से दो-दो हाथ करें। सूचना के अधिकार के तहत हर युवा कम से कम एक आरटीआई अवश्य लगाएं। मिली जानकारियों के साथ जिम्मेदारों को नामजद कर कोर्ट तक ले जाएं। संकल्प लें कि न सोएंगे न सोने देंगे। तब फिर आप जैसों को ही मतदाता ‘पत्रिका जनप्रहरी’ के रूप में चुन लेगा।
बुद्धि सारथी रहे, रथी न बने
ओटीटी पर नंगा नाच
आप उतरें तो अच्छी हो राजनीति
लिंगभेद की समाप्ति की ओर
संवाद-आत्मा से आत्मा का
——————————————————–
[typography_font:14pt;” >
गुलाब कोठारी के अन्य सभी लेख मिलेंगे यहां, कृपया क्लिक करें
——————————————————–