यही कारण है कि बजट घोषणाओं की बड़ी राशि जनता तक पहुंच ही नहीं पाती। सारा विकास भी नए उधार पर आधारित रहता है। कहने को तो ये वे ही संभ्रांत व्यक्ति होते हैं जिनको लाखों लोग सिर पर बिठाते हैं। लेकिन मात्र पांच साल में इनकी शेर की खाल उघड़ जाती है। यही कारण है कि अमृत महोत्सव मनाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने वाले (बीपीएल) काफी संख्या में बढ़ गए। राजनेता माफिया से जुड़ गए। राज करना आता नहीं, ज्ञानी होने की कोई शर्त भी नहीं होती। राज अफसर करता है, नेता धन बटोरता है।
दूसरा कीड़ा जिसने लोकतंत्र को खोखला कर दिया, वह है जातिवाद। वंशवाद-क्षेत्रवाद भी इसी की शाखाएं बनकर निकली हैं। हर बड़े दल को एक बड़ी जाति का आधार टिकाए चल रहा है। उस दल के लिए उसकी जाति, देश और कानून से भी बड़ी है। सच तो यह है कि न कोई वर्ण सिद्धान्त के तात्विक स्वरूप को जानता है, फिर भी जाति का कार्ड धड़ल्ले से चल रहा है।
हर जाति में कोई भी वर्ण पैदा हो सकता है। जाति कर्म से और वर्ण जन्म से मिलता है। विभिन्न प्रकार के आरक्षणों के लाभों पर अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि लाभान्वित कौन हुआ और कौन वंचित रह गया? आगे चलकर यही वंशवाद का जनक बन गया। लोकतंत्र का जो रूप आज उभरकर आया है, उस पर शोध किया जाना चाहिए।
अशिक्षा का शत्रु लोकतंत्र से चिपक सा गया। कानून ने विरासत का रूप ले लिया। देशहित पीछे छूट गया। देश कई टुकड़ों में बंट गया। एकता और अखण्डता का नारा धूल में मिल गया। जैसे-जैसे विकास हुआ वैसे-वैसे ही गरीब बढ़ते चले गए। सौहार्द भी कहीं चला गया।
हर पांच साल बाद हम अपना जनप्रतिनिधि चुनते हैं। युग बदलता है, संस्कृति बदलती है, नए मतदाता जुड़ते हैं। ऐसा भी होता है कि हम ही प्रतिनिधि चुनते हैं, हम ही धकेलकर बाहर भी कर देते हैं। किसी को शर्म तक नहीं आती। इसका कारण दलों की दृष्टि का संकुचन भी है। जो कमाऊपूत है उसे ही टिकट देते हैं, अपराधी का नंबर पहले। तब कैसा विकास, कैसा लोकतंत्र!
राजस्थान पत्रिका लोकतंत्र का चौथा पाया नहीं है, प्रहरी है। ‘य एषु सुप्तेषु जागर्ति’-सोते हुओं में जागता रहने वाला। अपने इसी दायित्वबोध के कारण पत्रिका ने वर्ष 2018 में चार अप्रेल को ‘चेंजमेकर’ अभियान शुरू किया था। मकसद एक ही था कि सामूहिक भागीदारी से सीधे स्वतंत्र प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया बने। इस प्रक्रिया का लक्ष्य पार्टी नहीं बल्कि प्रत्याशी का व्यक्तित्व बनाया गया।
ताकि कई बेडिय़ां टूट सकें, शिक्षित-ईमानदार व निष्ठावान व्यक्ति का ही सीधा चयन हो सके, और मकसद यह भी रहा कि बदलाव का यह संकल्प यदि पार्टी से जुड़ जाए तो सोने में सुहागा। सरकारों के भ्रष्ट और धृष्ट व्यवहार से मुक्ति मिल सकती है। जब अंगूठा छाप नेता मंत्री बन जाए तब सरकार अधिकारी ही चलाते हैं। जितने विभाग, उतनी कमाई। चुनाव खर्च वसूल करना पहला लक्ष्य और अगले चुनाव की व्यवस्था। चारों ओर माफियाराज।
बहुत हो गया। चिंता यह है कि आज तो युवा, राजनीति में प्रवेश से पहले भ्रष्ट होने पर उतारू हो चला। कॉलेज में ही विभिन्न दलों का सदस्य बनकर, उनके चोले में ही छात्रसंघों के चुनाव लड़ता है। तब देश का चिन्तन कैसे विकसित होगा? जबकि आज पैंसठ प्रतिशत युवा वर्ग पैंतीस वर्ष से कम आयु का है। साथ ही शिक्षित और तकनीकी रूप से सक्षम है।
भविष्य का भारत इन्हें ही बनाना है, इनको ही जीना है। आज तो जनप्रतिनिधि, जनता की शक्ति से जनता को ही आहत करके गौरवान्वित होते दिखते हैं। युवा शक्ति ही इन ‘आसुरी शक्तियों’ से लोकतंत्र को मुक्त कराएगी। इसके लिए चुप्पी तोडऩी है। बदलाव के दृढ़ संकल्प के साथ। पुराने अनुभव काम आने चाहिए। इसीलिए पत्रिका आगामी चुनावों में भी अपनी सक्रिय भूमिका के साथ खड़ा है। नए लोगों का चुनाव हो। ऐसा चुनाव जिसमें जनभागीदारी हो। साथ ही उसे प्रशिक्षण भी मिले। जनता द्वारा ही अपने उम्मीदवार का चयन किया जाना लोकतंत्र का बड़ा उत्सव है।
इसमें नए युग की दृष्टि पहली आवश्यकता है। इसीलिए जनप्रहरी अभियान में हमारा नारा है-‘आप उतरें तो राजनीति अच्छी हो।’ सही मायने में हमारा जनप्रहरी ही नए बदलाव का हीरो होगा।
बदलाव कोई साधारण कार्य नहीं है। इस पर भी निर्भर करता है कि किसको बदलना है। सृष्टि में असुर तीन गुना होते हैं, अच्छे लोगों से। इनसे निपटने के लिए दृढ़ संकल्प और मर मिटने की शक्ति चाहिए। स्वर्ग में जाना है तो स्वयं को ही मरना पड़ता है। क्रान्ति के दूत ही अवतार कहलाते हैं।
इतिहास साक्षी है नई पीढ़ी अपनी नई आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं मार्ग निकालती है। विश्वभर में आज भी ऐसा ही हो रहा है। ऐेसे में सवाल यह है कि भारतीय युवा मौन है। क्यों? क्या उसमें ऊर्जा का अभाव है? क्या वे नए अंग्रेजों का गुलाम ही रहना चाहते हैं? आज हम स्वतंत्र कहां हैं?
जन्म से मृत्युपर्यन्त किसी न किसी योजना के नाम पर सरकारों पर ही आश्रित हैं। सरकारों ने युवाओं को भर्तियों से बाहर रखने का तरीका ढूंढ रखा है। जो पुराने हैं वे कुर्सी पर बने रहने के लिए कानून तक बना और बदल देते हैं। रास्ते निकाल लेते हैं।
इतना ही नहीं शिक्षा नीति के नाम पर पढ़ाई की अवधि बढ़ा-बढ़ाकर युवाओं का अपमान कर रहे हैं। बड़े-बड़े अफसर हों या न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े ओहदेदार, मरते दम तक सरकार को दोहन करना ही अपना अधिकार मानते हैं। उससे भी बढ़कर सच्चाई तो यह है कि ये आम नागरिकों को दोयम दर्जे का ही मानते हैं। शुद्ध अंग्रेजों की तरह। इनको भी बिचौलिए तो मिल ही जाते हैं। कब तक सहन करोगे दोस्तों!
नेता का बदलाव पहली आवश्यकता है। उनकी ईमानदारी, निष्ठा ही कुछ नया करेगी। नए अंग्रेजों में डर पैदा करना पड़ेगा। नया नेता देश के लिए जीने-मरने वाला हो। भविष्य को समझ सके, उसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त हो। प्रशिक्षण का अभाव ही वह कमजोरी है जहां आज का नेता भी कठपुतली बनकर जी रहा है। पेट भरने के लिए भ्रष्टाचार की समानान्तर सरकार बना लेते हैं।
उधर बजट अंधेरे में बहता रहता है। युवा वर्ग सूनी आंखों से आसमान की ओर ताकता रहता है। अपराधी तक सरकारी होने लगे हैं और उनके द्वारा ही पोषित हैं। इतना ही नहीं, साम्प्रदायिक आधार पर अपराधी पैदा किए जा रहे हैं। पुलिस की बन्दूकें जंग खा रही हैं। माफिया गोली चला रहा है। तब क्या बाहर से बाबर, सिकन्दर या अंग्रेजों के आने की आवश्यकता रह गई?
आज सरेराह बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ हो रहा है, वे केक की तरह काटी जा रही है और युवा मौन खड़ा देख रहा है। उसका खून अब खौलता नहीं, मानो बलहीन हो चला है। सरकार भी ऐसे ही तंगदिल चला रहे हैं। पेड़ कटना-नारी देह का कटना इनके लिए एक ही बात है। टका सा बयान देकर बिल में घुस जाते हैं। देश जले, देश बिके, देश लुटे या फिर से गुलाम हो जाए, इनका पेट भरना चाहिए बस!
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