आदिवासी महिलाएं गैस सिलेंडर और चूल्हे होने के बावजूद जंगल में जाकर लकडिय़ां लेकर आ रही है। इसके बाद ही सुबह-शाम के भोजन का प्रबंध हो पाता है। सिलेंडर का रिफिल इतना महंगा है कि आदिवासी अंचल के लोग उसे नहीं भरवा पा रहे है। सुरसा की बैल की तरह सिलेडर की कीमतें बढ़ती ही जा रही है, वहीं सरकार की सब्सिडी भी अब नाम मात्र की रह गई है। इन क्षेत्रों के लोग कृषि और मजदूरी पर ही निर्भर है, यह जरूरी है कि इन क्षेत्रों में सब्सिडी के साथ—साथ विशेष पैकेज भी दिया जाए। जब सरकार विभिन्न क्षेत्रों के लिए विशेष पैकेज दे सकती है तो कम से कम आदिवासी अंचल के लिए गैस पर सब्सिडी का विशेष पैकेज तो दे ही सकती है। तब ही इन पिछड़े क्षेत्रों की महिलाओं को धूूएं से निजात मिलेगी और प्रधानमंत्री की ये महत्वपूर्ण योजना साकार हो पाएगी।
शहर के लोग तो जैसे तैसे कर सिलेडर का प्रबंध कर लेते हैं लेकिन आदिवासियों के लिए अब भी यह सफेद हाथी की तरह दिखावा मात्र ही है। आदिवासी अंचल में जब इस योजना के तहत हजारों महिलाओं को गैस कनेक्शन दिए गए थे तब पूरे क्षेत्र में खुशी का माहौल था। केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार जो गैस टंकी दी गई तब महिलाओं की आंखों में चमक थी, उम्मीद थी कि धूएं से छूटकारा मिल जाएगा पर महंगी गैस ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
आज जमीनी हकीकत यह है कि महिलाओं द्वारा गैस का उपभोग आदिवासी अंचल में नहीं हो रहा है, गैस चूल्हें एवं टंकी की जगह वापस परम्परागत चूल्हे ने जगह ले ली है क्योंकि सिलेंडर रिफल कराना इनके बूते के बाहर है। सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना तभी उपयोगी साबित हो पाएगी जब आदिवासी व पिछड़़ क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए विशेष पैकेज का सरकार कदम उठाएगी। सरकार को जल्द से जल्द आदिवासी अंचल के लिए गैस पर पचास फीसदी सब्सिडी का विशेष पैकेज का ऐलान करना चाहिए तब ही जाकर आदिवासियों का उज्जवला का उजाला बिखरेगा।